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सिद्ध चिकित्सा

सिद्ध चिकित्सा भारत के तमिलनाडु की एक पारम्परिक चिकित्सा पद्धति है। भारत में इसके अतिरिक्त आयुर्वेद और यूनानी चिकित्सा पद्धतियाँ भी प्रचलित हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि उत्तर भारत में यह पद्धति ९ नाथों एवं ८४ सिद्धों द्वारा विकसित की गयी जबकि दक्षिण भारत में १८ सिद्धों (जिन्हें 'सिद्धर' कहते हैं) द्वारा विकसित की गयी। इन सिद्धों को यह ज्ञान शिव और पार्वती से प्राप्त हुआ। यह चिकित्सा पद्धति भारत की ही नहीं, विश्व की सर्वाधिक प्राचीन चिकित्सा-पद्धति मानी जा सकती है।

क्या है नर्सिंग

आपने अक्सर अस्पतालों में डॉक्टर के साथ में या मरीजों की सेवा में कार्यरत स्त्रियों-पुरुषों को देखा होगा। इन लोगो को हम नर्स के नाम से जानते हैं और इनके काम को नर्सिंग कहते हैं। क्या आप जानते हैं नर्सिंग भी एक प्रकार की नौकरी है और आज के समय में बहुत तेज़ी के साथ आगे आने वाला पेशा है। क्यों कि आज देश-दुनिया में जितनी तेज़ी से नए-नए हॉस्पिटल बन रहे हैं, रोगियों की संख्या बढ़ रही है उसी प्रकार से उनमे काम के लिए नर्सों की जरूरतें भी बढ़ रही हैं। आज हम आपको बताएंगे की नर्स बनने के लिए क्या करना होगा आपको। नर्स बनने के लिए आपको नर्सिंग का कोर्स करना होता है। जैसे ही हम नर्स शब्द सुनते हैं हमारे जेहन में सिर्फ स्त्री का ही चित्र उभर के आता है। ऐसा इसलिए होता है क्योकि हमने अक्सर महिलाओं को ही नर्स के रूप में लोगो की सेवा करते हुए देखा है। लेकिन ऐसा नहीं है कि नर्सिंग का कोर्स सिर्फ महिलाओं के लिए है, पुरुष भी नर्सिंग का कोर्स करके नर्स बन सकते हैं। हालाँकि ऐसा माना जाता है कि महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा अच्छे तरीके से देखभल करती हैं इसलिए इस क्षेत्र में ज्यादातर महिलाएं देखने को मिलती थी। अब इस क्षेत्र में पुरुषों की भी बढ़-चढ़ के हिस्सेदारी देखी जा सकती है। इस क्षेत्र में दोनों ही महिला हों या पुरुष अपना भविष्य बना सकते हैं। जो लोग दूसरों की सेवा करने की भावना रखते हैं। उनको ये कोर्स जरूर करना चाहिए। वे इससे न सिर्फ सबकी सेवा भी कर सकते हैं। बल्कि अपने पैरों पर भी खडे हो सकते हैं और एक अच्छी तनख्या भी कमा सकते हैं। Nursing इन दिनों एक उजले करियर के रूप में सामने आया है। यह एक ऐसा कोर्स है जिसे गांवों से लेकर शहर तक के छात्र-छात्राएं करना पसंद करते हैं। नर्सिंग का कोर्स वे लोग भी करना चाहते हैं जो समाज की सेवा करना चाहते हैं। तो चलिए आगे बढ़ते हैं और आपको नर्सिंग के बारे में अधिक जानकारी देते हैं कि नर्सिंग कैसे करें, कैसे अपना करियर इस क्षेत्र में बनायें आदि। ((क्या है नर्सिंग ? (What is Nursing ?)) नर्सिंग के क्षेत्र में कई तरह के कोर्स होते हैं। जैसे कि डिप्लोमा, अंडर ग्रेजुएट एवं सर्टिफिकेट आदि। अपनी योग्यता और रुचि के अनुसार छात्र चुनाव कर सकते हैं। अगर आपने नर्सिंग में बीएससी की है तो इसके बाद आप पोस्ट ग्रेजुएशन का कोर्स भी कर सकते हैं। इसके तहत आप डाइटेटिक्स, कार्डियोलॉजिस्ट, पीडियाट्रिक्स, ऑप्थेल्मोलॉजी, ऑथरेपेडिक्स आदि विभिन्न क्षेत्रों में भी विशेषज्ञता हासिल कर सकते हैं। आपको बता दें कि अगर आप पोस्ट ग्रेजुएट होना चाहते हैं तो आप इस क्षेत्र में एमफिल और पीएचडी भी कर सकते हैं। आपको बता दें कि नर्सिंग प्रवेश परीक्षा के आधार पर ही अधिकांश अच्छे संस्थानों में दाखिला होता है। ((नर्सिंग में करियर)) अगर आप नर्सिंग करना चाहते हैं तो आप सहायक नर्स/ मिडवाइफ/ हेल्थ वर्कर (एएनएम) कोर्स से शुरू कर सकते हैं। ये कोर्स दो वर्ष का होता है। एएनएम कोर्स प्रशिक्षण प्रदान करता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों, विशेषकर बच्चों, माताओं और वृद्ध व्यक्तियों के स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं की देखभाल कैसे करें। एएनएम ऑक्सिलीरी नर्सिंग मिडवाइफ़री के लिए खड़ा है यह एक डिप्लोमा कोर्स है जो विभिन्न व्यक्तियों के स्वास्थ्य देखभाल के अध्ययन पर ध्यान केंद्रित करता है। यह भी बताता है कि कैसे उपकरण का ध्यान रखना, संचालन थियेटर की स्थापना, रोगी को समय पर दवा प्रदान करना और रिकॉर्ड बनाए रखना। एएनएम पाठ्यक्रम छात्रों को प्रशिक्षित करता है और उन्हें मूल स्वास्थ्य श्रमिकों के रूप में काम करने में सक्षम बनाता है। एएनएम स्नातकों को बच्चों, महिलाओं और बूढ़े लोगों के उपचार के प्रति मुख्य ध्यान दिया जाता है। इसके अलावा आप जनरल नर्स मिडवाइफरी (जीएनएम) कोर्स भी कर सकते हैं। ये साढ़े तीन साल का होता है। जीएनएम को जनरल नर्सिंग और मिडवाइफरी कहा जाता है जो सामान्य स्वास्थ्य देखभाल, नर्सिंग और दाई का काम में नर्सों की शिक्षा से संबंधित है। जीएनएम नर्सिंग कार्यक्रम में सामान्य नर्सों को तैयार करना है जो स्वास्थ्य टीम के सदस्यों के रूप में कार्य करते हैं। इसके अलावा आप नर्सिंग स्कूलों या कॉलेज से नर्सिंग में स्नातक भी कर सकते हैं। बीएससी (नर्सिंग) पाठ्यक्रम चार वर्ष का है। बीएससी नर्सिंग कोर्स नर्सिंग, फिक्स्ड एड्स और मिडवाइफ़री के बारे में बुनियादी जानकारी प्रदान करते हैं। वे नर्सिंग के सभी सैद्धांतिक और व्यावहारिक पहलुओं में प्रशिक्षित होते हैं। इसके बाद आप एमएससी नर्सिंग भी कर सकते हैं। इन के अलावा आप पोस्ट-बेसिक स्पेशियलटी (एक वर्षीय डिपलोमा) करके विभिन्न क्षेत्रों में विशेषज्ञता भी पा सकते हैं।

एक्यूप्रेशर

एक्यूप्रेशर एक्यूप्रेशर शरीर के विभिन्न हिस्सों के महत्वपूर्ण बिंदुओं पर दबाव डालकर रोग के निदान करने की विधि है। चिकित्सा शास्त्र की इस शाखा का मानना है कि मानव शरीर पैर से लेकर सिर तक आपस में जुड़ा है। हजारों नसें, रक्त धमनियों, मांसपेशियां, स्नायु और हड्डियों के साथ अन्य कई चीजें आपस में मिलकर इस मशीन को बखूबी चलाती हैं। अत: किसी एक बिंदु पर दबाव डालने से उससे जुड़ा पूरा भाग प्रभावित होता है। यह भारत की प्राचीन चिकित्सा पद्धति है। इसके अंतर्गत लगातार अध्ययनों के बाद मानव शरीर में एक से दो हजार ऐसे बिंदु चिन्हित किए गए हैं, जिन्हें एक्यूप्वाइंट कहा जाता है। जिस जगह दबाव डालने से दर्द हो उस जगह दबने से सम्बन्धित बिनदु कि बीमारी दुर होती है। वर्तमान में इस पद्धति की कई विधियां प्रचलित हैं। भारत में निम्नलिखित विधियां मुख्य हैं- 1. चाईनीज एक्यूप्रेशर 2. आयुर्वेदिक एक्यूप्रेशर 3. सूजोक 4. ऑरिकूलर 5. एफ.डी.टी. सारसुत्र जिस जगह दबाव दालने से दर्द हो उस जगह दबाने से सम्बन्धित बिन्दु कि बीमारी दूर होती है। हमारे शरीर में उर्जा का निरंतर और लगातार बह रही है इसे प्राण या आत्मा भी कहते है ! इसी शक्ति की मदद से एक्यूप्रेशर में इलाज़ किया जाता है!

पंचगव्य क्या है

पंचगव्य क्या है – इसे कैसे बनाये ? पिछले दो-तीन दशकों से निरंतर रासायनिक खादों के प्रयोग से जमीन की उर्वरक शक्ति में कमी आई है। इसी तरह आने वाले समय में जमीन रसायनों का ढे़र बन जायेगी और हम सिर्फ पुरानी बातों को दोहरा के चीजों को बढ़ावा देते रहेंगे। आज जरुरत है तो हमारी कृषि कार्य प्रणाली में बदलाव लाने की फिर से हमे हमारे पुरखों के बताए पथ पर अग्रसित होना होगा। उनकी कृषि कार्य प्रणाली को अपनाना होगा और कम लागत में अधिक मुनाफे का मूल मंत्र अपनाना होगा। जैसा कि हमारे माननीय प्रधान मंत्री जी भी बोलते हैं कि 2022 तक किसानों की आमदनी दौगुनी हो जाएगी लेकिन इसकी पूरी सफलता कम लागत व अधिक मुनाफे पर टिकी हुई है। किसान भाइयों को परम्परागत कृषि को अपनाना होगा तभी आने वाली पीढ़ी को एक सुखद और खुशहाल जीवन मिल पाएगा। प्राचीन काल से ही भारत जैविक आधारित कृषि प्रधान देश रहा है। सदियों से विभिन्न प्रकार के उर्वरक उपयोग होते आए हैं जो पूर्णतः गाय के गोबर और गोमूत्र पर आधारित थे। उसी प्रकार विभिन्न प्रकार के तरल जैविक उर्वरकों आज परम्परागत रूप से उपलब्ध हैं। पंचगव्य क्या है ? पंचगव्य का अर्थ है पंच+गव्य अर्थात गौमूत्र, गोबर, दूध, दही, और घी के मिश्रण से बनाये जाने वाले पदार्थ को पंचगव्य कहते हैं। प्राचीन समय में इसका उपयोग खेती की उर्वरक शक्ति को बढ़ाने के साथ पौधों में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए किया जाता था। पंचगव्य एक अत्यधिक प्रभावी जैविक खाद है जो पौधों की वृद्धि एवं विकास में सहायता करता है और उनकी प्रतिरक्षा क्षमता को बढ़ाता है| पंचगव्य का निर्माण देसी गाय के पांच उत्पादों से होता है क्योंकि देशी गाय के उत्पादों में पौधों के लिए आवश्यक सभी पोषक तत्व पर्याप्त व सन्तुलित मात्रा में पाये जाते हैं| फ़ायदे • भूमि में सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या में बढ़ोतरी • भूमि की उर्वरा शक्ति में सुधार • फसल उत्पादन एवं उसकी गुणवत्ता में वृद्धि • भूमि में हवा व नमी को बनाये रखना • फसल में रोग व कीट का प्रभाव कम करना • सरल एवं सस्ती तकनीक पर आधारित आवश्यक सामिग्री पंचगव्य निम्नलिखित सामिग्री से बनाया जाता है- • 5 किलोग्राम देशी गाय का ताजा गोबर • 3 लीटर देशी गाय का ताजा गौमूत्र • 2 लीटर देशी गाय का ताजा कच्चा दूध • 2 लीटर देशी गाय का दही • 500 ग्राम देशी गाय का घी • 500 ग्राम गुड़ • 12 पके हुए केले पंचगव्य बनाने की विधि • प्रथम दिन 5 कि.ग्रा. गोबर व 1.5 लीटर गोमूत्र में 250 ग्राम देशी घी अच्छी तरह मिलाकर मटके या प्लास्टिक की टंकी में डाल दें। • अगले तीन दिन तक इसे रोज हाथ से हिलायें। अब चौथे दिन सारी सामग्री को आपस में मिलाकर मटके में डाल दें व फिर से ढक्कन बंद कर दें। • इस मिश्रण को 15 दिनों के लिए छाँव में रखना है और प्रतिदिन सुबह और शाम के समय अच्छी तरह लकड़ी से घोलना है| • इस प्रकार 18 दिनों के बाद पंचगव्य उपयोग के लिए बनकर तैयार हो जायेगा | • इसके बाद जब इसका खमीर बन जाय और खुशबू आने लगे तो समझ लें कि पंचगव्य तैयार है। इसके विपरीत अगर खटास भरी बदबू आए तो हिलाने की प्रक्रिया एक सप्ताह और बढ़ा दें। इस तरह पंचगव्य तैयार होता है अब इसे 10 ली. पानी में 250 ग्रा. पंचगव्य मिलाकर किसी भी फसल में किसी भी समय उपयोग कर सकते हैं। • अब इसे खाद, बीमारियों से रोकथाम, कीटनाशक के रूप में व वृद्धिकारक उत्प्रेरक के रूप में उपयोग कर सकते हैं। इसे एक बार बना कर 6 माह तक उपयोग कर सकते हैं। इसको बनाने की लागत 70 रु. प्रति लीटर आती है। पंचगव्य की उपयोग विधि पंचगव्य का प्रयोग आप गेहूँ, मक्का, बाजरा, धान, मूंग, उर्द, कपास, सरसों, मिर्च, टमाटर, बैंगन, प्याज, मूली, गाजर, आलू, हल्दी, अदरक, लहसुन, हरी सब्जियाँ, फूल पौधे, औषधीय पौधे आदि तथा अन्य सभी प्रकार के फल पेड़ों एवं फसलों में महीने में दो बार कर सकते हैं| इसे 10 ली. पानी में 250 ग्रा. पंचगव्य मिलाकर किसी भी फसल में किसी भी समय उपयोग कर सकते हैं। बीज उपचार से लेकर फसल कटाई के 25 दिन पहले तक 25 से 30 दिन के अन्तराल में इसका उपयोग किया जा सकता है। पंचगव्य को निम्नलिखित प्रकार से प्रयोग किया जा सकता है- 1. बीज व जड़ उपचार द्वारा पंचगव्य के 3% घोल में बीज या जड़ को 10-15 मिनट तक डूबोने के बाद 30 मिनट तक छाया में सुखाकर बुवाई करें। 300 मि.ली. पंचगव्य 60 किलो बीज या जड़ का उपचार करने के लिए पर्याप्त होता है। 2. फल पेड़, पौधों और फसल पर छिड़काव करके पंचगव्य के 3% घोल को फल पेड़-पौधों और फसल पर छिड़काव करके प्रयोग किया जा सकता है। 3 लीटर पंचगव्य एक एकड़ फसल के लिए पर्याप्त होता है। 3. सिंचाई के पानी के साथ प्रवाहित करके पंचगव्य के 3% घोल को सिंचाई के पानी के साथ प्रवाहित करके प्रयोग किया जा सकता है। 3 लीटर पंचगव्य एक एकड़ खेत के लिए पर्याप्त होता है। 4. बीज भंडारण के लिए बीज को भंडारण करने से पहले पंचगव्य के 3% घोल में 10-15 मिनट के लिए डुबो कर रखें उसके बाद सुखाकर भंडारण करें। ऐसा करने से बीज को लगभग 360 दिनों तक सुरक्षित रखा जा सकता है। पंचगव्य के प्रयोग में सावधानियाँ 1. पंचगव्य का उपयोग करते समय खेत में नमी का होना आवश्यक है। 2. एक खेत का पानी दूसरे खेतों में नहीं जाना चाहिए। 3. इसका छिड़काव सुबह 10 बजे से पहले तथा शाम 3 बजे के बाद करना चाहिए। 4. पंचगव्य मिश्रण को हमेशा छायादार व ठण्डे स्थान पर रखना चाहिए। 5. इसको बनाने के 6 माह तक इसका प्रयोग अधिक प्रभावशाली रहता है। 6. टीन, स्टील व ताम्बा के बर्तन में इस मिश्रण को नहीं रखना चाहिए। 7. इसके साथ रासायनिक कीटनाशक व खाद का उपयोग नहीं करना चाहिए। 8. पंचगव्य के उचित लाभ के लिए 15 दिन में एक बार प्रयोग करना चाहिए। पंचगव्य का प्रभाव • पंचगव्य का छिड़काव करने से पौधों के पत्ते आकार में हमेशा बड़े एवं अधिक विकसित होते हैं तथा यह प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया को तेज करता है जिससे पौधे की जैविक क्षमता बढ़ जाती है एवं उपापचय क्रियायें तेज हो जाती हैं। • तना अधिक विकसित और मजबूत होता है जिससे परिपक्वता के समय पौधे पर जब फल लगते हैं तब पौधा फलों का वजन सहने में अधिकतम सक्षम होता है तथा शाखाएं भी अधिक विकसित तथा मजबूत होती हैं। • जड़ें अधिक विकसित तथा घनी होती हैं तथा इसके अलावा वे एक लंबे समय के लिए ताजा एवं स्वस्थ रहती हैं। जड़ें मृदा में गहरी परतों में फैलकर वृद्धि करती हैं तथा आवश्यक पोषक तत्वों एवं पानी को अधिकतम मात्रा में अवशोषित कर लेती हैं जिससे पौधा स्वस्थ बना रहता है तथा पौधों में तेज हवा, अधिक वर्षा व सूखे की स्थति को सहने की एवं रोगों के प्रति लड़ने की क्षमता बढ़ जाती है। • पंचगव्य के प्रयोग से फसल की अच्छी उपज मिलती है। यह वातावरण की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी एक समान फसल की पैदावार देने में सहायता करता है। यह न केवल फसल की उपज को बढ़ाता है बल्कि अनाज, फल, फूल व सब्जियों का उत्पादन एक बेहतर रंग, स्वाद, पौष्टिकता तथा विषाक्त अवशेषों के बिना करता है जिससे फसल की बाजार में अधिक कीमत मिलती है। यह बहुत सस्ता एवं अधिक प्रभावकारी है जिससे कृषि में कम लागत पर अधिक लाभ मिलता है।

CMS&Ed

(1) यह कोर्स 11/2 वर्षीय पाठ्यक्रम है जिसमें विश्वस्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा प्राथमिक चिकित्सा के लिए शासन से मान्यता प्राप्त एलोपैथिक की लगभग 42 जनरल मेडिसिन का अध्ययन क्वालीफाईड डाॅक्टरो के द्वारा कराया जाता है । इसमें आप माननीय सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को आधार बनाकर प्राइमरी हैल्थ वर्कर के रूप में चिकित्सा कार्य कर समाज की सेवा कर सकते है । प्राथमिक चिकित्सा कार्य करने हेतु अभी तक न तो राज्य शासन से कोई रोक टोक है और ना ही केन्द्रीय शासन से । आप शासन मान्य एम.बी.बी.एस. (M.B.B.S) डाॅक्टरो की तरह इस डिप्लोमा से कार्य नहीं कर सकते है । इस तरह का कोर्स किसी भी सरकार द्वारा नहीं चलाया जाता है । क्योंकि न्यायालय ने अपने एक निर्णय में कहा है कि वो चिकित्सक जिस चिकित्सा पद्धिति में प्रशिक्षित है वह उसी चिकित्सा पद्धति से चिकित्सा कार्य करें । और यदि वह चिकित्सक दूसरी चिकित्सा पद्धति से कार्य करते है तो वे झोलाछाप चिकित्सक माने जायेंगे । यदि आप अपमानित होने से बचना चाहते है। । शासन द्वारा दंड नही प्राप्त करना चाहते है तो आप C.M.S. & E.D. का कोर्स कर लेवें । क्योंकि अब इतना समय बीत जाने के पश्चात शासन से मान्यता प्राप्त कोई भी एलोपैथिक मेडिसिन का कोर्स कर लेवें । क्योंकि अब इतना समय बीता जाने के पश्चात शासन से मान्यता प्राप्त कोई भी एलोपैथिक मेडिसिन का कोर्स नही कर सकते है, और न ही आप P.M.T. की परीक्षा पास कर 51/2 वर्षीय एम.बी.बी.एस. कोर्स कर सकते है । यदि एलोपैथिक मेडिसिन से प्रेक्टिस करना है तो आपके पास कुछ न कुछ आधार तो चाहिए ही । शासन का न सही तो शासन से मान्यता प्राप्त संस्था का ही सही । अब आपके लिए बचाव का यही एक आखरी रास्ता बन सकता है क्या सही है क्या सही रहेगा आप स्वयं विचार कर लेंवे । एक सुनहरा व अंतिम मौका आपको प्राप्त हो रहा है । इसे अपने हाथ से ना जाने दे अन्यथा आपको बाद में पछताना होगा । यदि आपको हमारी बाते पसंद आए तो हम आपके सदा सहयोगी रहेंगे । (2). आवश्यक जानकारी 1. आपको यह जानकारी दी जाती है कि एलोपैथिक मेडिकल से उपचार करने का अधिकार केवल एलोपैथिक एम.बी.बी.एस. डाॅक्टरो को है ना कि आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक, यूनानी मेडिसिन, नेचरो पैथिक, बायो केमिक, इलेक्टो होम्योपैथिक, अल्टरनेट मेडिसिन के डाॅक्टरो को नही है, यदि वे ऐसा करते है तो कानूनी अपराध है ऐसे डाॅक्टर दण्ड के भागीदार होते है ऐसे डाॅक्टरो को कानून द्वारा सजा दी जा सकती है । 2. CMS & ED 11/2 वर्षीय पाठयक्रम का कोर्स करने के पश्चात भारत के किसी भी प्राथमिक ग्रामीण क्षेत्र में बिना किसी से डरे साधारण एलोपैथिक मेडिसिन से उपचार कर सकते है तथा रूलर इलाके मे सरकार द्वारा कोई वेकेन्सी निकलने पर शासकीय नौकरी के लिए आवेदन दे सकते है इसकी पात्रता हमें माननीय सुप्रीम कोर्ट ने प्रदान की है । 3. जब कोई भी शासकीय स्वास्थ्य अधिकारी (BMO/CMO) आपके क्लीनिक में आये तो आप उनसे शिष्टता पूर्वक बात करें हमारे संस्थान द्वारा दिया गया CMS & ED का सर्टिफिकेट डब्ल्यू एच ओ द्वारा प्रदान की गई मेडिसिन की लिस्ट, एम.सी.आई. के आदेश की फोटो काॅपी उस अधिकारी को एक फाईल बनाकर आाप दे देवे आप उनसे बिल्कुल भी न घबराये तथा उनसे गलत व्यवहार भी न करें । 4. अधिकारी यदि आपको डाटता या फटकारता है एवं CMS & ED के कोर्स को फर्जी कहता है तो आप उन से बिल्कुल भी ना घबराये । आप उस अधिकारी से अवश्य ही कहे कि सर मेरा सर्टिफिकेट फजी है तो कृपया आप मुझे लिखकर दे देवे ताकि हम इसके खिलाफ शिकायत दर्ज करा सके हम आपको 100 प्रतिशत गारंटी के साथ लिखकर देते है कि कोर्स को कर लेने के बाद जीवन में कभी भी किसी भी प्रकार की तकलीफो का सामना नही करना पडेगा । यदि आप इस कोर्स को कर लेते है तो आप भारत के प्रत्येक ग्रामीण क्षेत्र में साधारण एलोपैथिक मेडिसिन से प्राथमिक उपचार कर सकते है । 5. यह कोर्स न राज्य सरकार चलाती है न केन्द्र सरकार यह कोर्स सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त संस्था व यूनिवर्सिटी द्वारा चलाया जाता है तथा इस डिप्लोमा के आधार पर प्राथमिक उपचार करने का अधिकार माननीय सुप्रीम कोर्ट ने प्रदान किया है मेडिकल काउन्सील आॅफ इण्डिया न्यू दिल्ली भी इस कोर्स का संचालन नही करती अतः इन्हे भी इस कोर्स को चलाने में कोई एतराज नही है इनके द्वारा प्रदत्त ड्रग्स के नाम पर घोषित है अतः ऐलोपैथिक से प्राथमिक उपचार करने का यह ऐन्थेटिक डिप्लोमा है । 6. यदि आपको CMS & ED का कोर्स बोगस या फर्जी लगता है तो कृपया करके आप MBBS एलोपैथिक का कार्स कर लेवे जो कि 10 + 2 के बाद प्री मेडिकल टेस्ट की परीक्षा उत्तीर्ण होने के बाद ही होता है जिसमें आपको 35 से 40 लाख रूपये खर्च करने होंगे अतः आप अपनी मर्जी के मालिक है । 7. माननीय सुप्रीम कोर्ट की शक्ति केन्द्र सरकार/राज्य सरकार/समस्त शासकीय/अषासकीय अधिकारी/गृहमंत्री/स्वास्थमंत्री/मुख्यमंत्री/प्रधानमंत्री स्टेट मेडिकल काउन्सील/सेन्टल मेडिकल काउन्सील/हाई कोर्ट आदि से बड़ी होती है । 8. अतः न्यायालय के आदेश की अवहेलना कोई भी जांच अधिकारी नही करना चाहेगा क्योंकि उसे भी डर होता है कि कहीं हमारे विरूद्ध न्यायालय की अवमानना का केस न लगा दिया जाये नही तो हमें बेमतलब ही कोर्ट के चक्कर लगाने पडेंगे अतः कोई भी बुद्धिमानी अधिकारी कोर्ट में केस नही लड़ना चाहेगा वह आपके डाक्यूमेन्ट की कापी सरकार के पास भेज देगा और आपके प्राथमिक उपचार केन्द्र में बाधा नही डालेगा यह 100 प्रतिशत सत्य है । 9. वैसे तो मेडिकल का प्रत्येक पाठ्यक्रम नियमित होता है लेकिन 5 वर्ष का अनुभव प्राप्त चिकित्सा इन कोर्सो को पत्राचार पाठ्यक्रम के द्वारा कर सकते है क्योंकि इन चिकित्सको को कोई अतिरिक्त अनुभव की जरूरत नही है । (3). प्रस्तावना विश्व स्वास्थ्य संगठन की घोषणा के अनुसार सभी के लिऐ अच्छे स्वास्थ की कामना ‘‘Health For All’’ इसे अलम आटा की घोषणा 1978 कहा गया है । विश्व स्वास्थ्य संघटना (WHO) के अनुसार स्वास्थ्य कर्मियों, सभी वैकल्पिक पद्धति के चिकित्सको को प्रशिक्षिक करने के लिए C.M.S. कोर्स का प्रावधान किया गया है। जिसके अंतर्गत अभ्यार्थी को 18 माह का आवश्यक औषधि प्रशिक्षण प्राप्त करने का प्रावधान है । आवश्यक औषधि पाठ्यक्रम पूरा होने पर परीक्षा में उत्तीर्ण अभ्यार्थी विश्व संगठन द्वारा अनुमोदित 42 एलोपैथिक औषधियों को दे सकते है ।

रेकी क्या है

रेकी क्या है ? रेकी जापानी भाषा का शब्द है जो ‘ रे ‘ और ‘ की ‘ दो शब्दों से मिलकर बना है। ‘ रे ‘ का अर्थ है सर्वव्यापी अर्थात ओम्नीप्रेजेंट तथा ‘ की ‘ का अर्थ है जीवन शक्ति या प्राण अर्थात लाइफ फोर्स। इस प्रकार रेकी वह ईश्वरीय अथवा आध्यात्मिक ऊर्जा है , जो इस समस्त ब्रह्माण्ड में हमारे चारों ओर व्याप्त है। हम सब इसी जीवन शक्ति को लेकर पैदा होते हैं और इसी के द्वारा जीवन जीते हैं। समय के साथ-साथ अनेक कारणों से जब हमारे शरीर में इस ऊर्जा का प्रवाह कम हो जाता है अथवा इसका संतुलन बिगड़ जाता है , तभी हमारा शरीर रोगों की ओर आकर्षित होता है। रेकी द्वारा उपचार या रेकी साधना में हम इसी सर्वव्यापी जीवन शक्ति का उपयोग अपने लाभ के लिए करते हैं। प्रार्थना क्या है ? हमारा प्रत्येक कर्म हमारे जीवन को निर्धारित करता है और कर्म के मूल में उपस्थित होता है ‘ विचार ‘ । अत: हमारे विचार ही हमारा जीवन निर्धारित करते हैं। हर विचार एक प्रार्थना की तरह कार्य करता है। हमारे विचार एक तरह से प्रतिज्ञापन या स्वीकारोक्ति हैं। हम जो चाहते हैं उसकी स्वीकारोक्ति। प्रार्थना भी एक स्वीकारोक्ति है। हमारे मन में अनेक इच्छाएं जाग्रत होती रहती हैं। हम ईश्वर से जो चाहते हैं , वह भाव सदैव हमारे मन में बना रहता है। अत: हमारा हर भाव , हमारा हर संकल्प प्रार्थना ही है। हमारी इच्छाएं , हमारे विचार या भाव अथवा संकल्प कैसे हों यह अत्यंत महत्वपूर्ण है न कि प्रक्रिया। प्रार्थना क्योंकि एक भाव है , अत: यह करने की वस्तु नहीं है। यह स्वत: ही घटित होती है। भाव को नियंत्रित करने की जरूरत है। भाव प्रदूषण से बचने के लिए जरूरी है कि हमारे विचार सदैव सकारात्मक रहें। सकारात्मक विचारों का पोषण ही वास्तविक प्रार्थना है। क्या रेकी और प्रार्थना में कुछ तत्व समान हैं ? ऊपरी तौर पर देखें तो रेकी और प्रार्थना में अंतर दिखाई पड़ता है , लेकिन वास्तव में रेकी और प्रार्थना एक ही हैं। प्रार्थना द्वारा हम ईश्वर से अपनी मनचाही वस्तु या स्थिति के लिए याचना करते हैं। या तो हम धन-दौलत या समृद्धि की कामना करते हैं या फिर कष्टों से मुक्ति की। प्रार्थना हम अपने परिवार के अन्य सदस्यों , मित्रों तथा परिचितों के लिए भी करते हैं। हम बस याचक होते हैं और ईश्वर या खुदा उन याचनाओं को पूरा करने वाला। इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए रेकी साधना भी की जाती है। रेकी और प्रार्थना के उद्देश्य और रेकी ऊर्जा तथा ईश्वरीय कृपा या ऊर्जा में कोई तात्त्विक अंतर नहीं है। रेकी ही नहीं , किसी भी अन्य शक्ति या उपचार पद्धति का सहारा व्यक्ति तब लेता है , जब उसके विश्वास में कमी आने लगती है। प्रार्थना और विश्वास का गहन संबंध है। जिस विचार अथवा प्रार्थना में विश्वास नहीं , वह मात्र शब्दाडम्बर है। जब किसी भी कारण से व्यक्ति का विश्वास डगमगाने लगता है तो ईश्वर से की गई उसकी प्रार्थना फलित नहीं हो सकती। रेकी एक नए ईश्वर की खोज है , एक नए ईश्वर की कल्पना , जिसमें व्यक्ति की आस्था पुन: प्रतिष्ठित हो सके। धर्मांतरण या धर्मपरिवर्तन द्वारा भी हम किसी दूसरे ईश्वर की शरण में जाते हैं। लेकिन जब धर्मांतरण संभव नहीं होता या दूसरे धर्म के ईश्वर में भी विश्वास नहीं होता तो हम ईश्वर के नए रूप की खोज में जुट जाते हैं। सर्वव्यापी ऊर्जा के रूप में नए ईश्वर की स्थापना ही ‘ रेकी ‘ है। जैसे ईश्वर से प्रार्थना करते हैं , वैसे ही रेकी ऊर्जा का आह्वान करते हैं। रेकी ऊर्जा या रेकी उपचार के प्रति आपके विश्वास का स्तर जितना अधिक होगा , उतना ही अधिक लाभ रेकी का अभ्यास आपको पहुंचाएगा। विश्वास के स्तर पर देखें तो जब तक ईश्वर में विश्वास था तो वह हमारी प्रार्थनाओं के माध्यम से हमारी इच्छाओं की पूर्ति का माध्यम था और अब यदि रेकी ऊर्जा में दृढ़ विश्वास है तो रेकी ऊर्जा हमारी इच्छाओं की पूर्ति में सहायक हो रही है। ईश्वर हो अथवा रेकी ऊर्जा या अन्य कोई ऊर्जा या ईश्वर रूप- हमारे विश्वास के बिना कोई हमारी सहायता नहीं कर सकता। विश्वास का उद्गम हमारा मन है , अत: ईश्वर हो अथवा रेकी ऊर्जा , दोनों हमारे मन की स्थितियां हैं।

योग क्या है


योग सही तरह से जीने का विज्ञान है और इस लिए इसे दैनिक जीवन में शामिल किया जाना चाहिए। यह हमारे जीवन से जुड़े भौतिक, मानसिक, भावनात्मक, आत्मिक और आध्यात्मिक, आदि सभी पहलुओं पर काम करता है। योग का अर्थ एकता या बांधना है। इस शब्द की जड़ है संस्कृत शब्द युज, जिसका मतलब है जुड़ना। आध्यात्मिक स्तर पर इस जुड़ने का अर्थ है सार्वभौमिक चेतना के साथ व्यक्तिगत चेतना का एक होना। व्यावहारिक स्तर पर, योग शरीर, मन और भावनाओं को संतुलित करने और तालमेल बनाने का एक साधन है। यह योग या एकता आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बँध, षट्कर्म और ध्यान के अभ्यास के माध्यम से प्राप्त होती है। तो योग जीने का एक तरीका भी है और अपने आप में परम उद्देश्य भी।

योग सबसे पहले लाभ पहुँचाता है बाहरी शरीर (फिज़िकल बॉडी) को, जो ज्यादातर लोगों के लिए एक व्यावहारिक और परिचित शुरुआती जगह है। जब इस स्तर पर असंतुलन का अनुभव होता है, तो अंग, मांसपेशियां और नसें सद्भाव में काम नहीं करते हैं, बल्कि वे एक-दूसरे के विरोध में कार्य करते हैं।

बाहरी शरीर (फिज़िकल बॉडी) के बाद योग मानसिक और भावनात्मक स्तरों पर काम करता है। रोज़मर्रा की जिंदगी के तनाव और बातचीत के परिणामस्वरूप बहुत से लोग अनेक मानसिक परेशानियों से पीड़ित रहते हैं। योग इनका इलाज शायद तुरंत नहीं प्रदान करता लेकिन इनसे मुकाबला करने के लिए यह सिद्ध विधि है।

पिछली सदी में, हठ योग (जो की योग का सिर्फ़ एक प्रकार है) बहुत प्रसिद्ध और प्रचलित हो गया था। लेकिन योग के सही मतलब और संपूर्ण ज्ञान के बारे में जागरूकता अब लगातार बढ़ रही है।

आयुर्वेद क्या है

आयुर्वेद : Ayurved आयुर्वेद हमारे ऋषि मुनियों द्वारा दिया गया अनमोल उपहार है जिसकी उपयोगिता का वर्णन शब्दों द्वारा नहीं किया जा सकता. आयुर्वेद का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है और आज भी यह सर्वश्रेष्ठ है. विदेशी वैज्ञानिक आयुर्वेद के सिद्धांतों का अध्ययन करके आश्चर्यचकित हो जाते है. (((.आयुर्वेद क्या है? - What is Ayurved.))) आयुर्वेद शब्द दो शब्दों आयुष्+वेद से मिलकर बना है जिसका अर्थ है "जीवन विज्ञान' - "Science of Life"'. आयुर्वेद (Ayurved) केवल रोगों की चिकित्सा तक ही सिमित नहीं है अपितु यह जीवन मूल्यों, स्वास्थ्य एंव जीवन जीने का सम्पूर्ण ज्ञान प्रदान करता है. (((.आयुर्वेद का इतिहास - History of Ayurved.))) पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार संसार की प्राचीनतम पुस्तक ऋग्वेद है. विभिन्न विद्वानों ने इसका निर्माण काल ईसा के 3 हजार से 50 हजार वर्ष पूर्व तक का माना है. इस संहिता में भी आयुर्वेद के अति महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का वर्णन है. अनेक ऐसे विषयों का उल्लेख है जिसके संबंध में आज के वैज्ञानिक भी सफल नहीं हो पाये है. इससे आयुर्वेद की प्राचीनता सिद्ध होती है. अतः हम कह सकते हैं कि आयुर्वेद की रचना सृष्टि की उत्पत्ति के आस पास हुई है. (((.क्यों सर्वश्रेष्ठ है आयुर्वेद? Why Ayurved is Best.))) आयुर्वेद ( Ayurved ), हमारे ऋषि मुनियों की हजारों वर्षो की मेहनत एंव अनुभव का नतीजा है. आयुर्वेद केवल रोगों की चिकित्सा तक ही सिमित नहीं है अपितु यह जीवन मूल्यों, स्वास्थ्य एंव जीवन जीने का सम्पूर्ण ज्ञान प्रदान करता है. आयुर्वेद (Ayurveda) के अनुसार शरीर में मूल तीन- तत्त्व वात, पित्त, कफ (त्रिधातु) हैं. अगर इनमें संतुलन रहे, तो कोई बीमारी आप तक नहीं आ सकती. जब इनका संतुलन बिगड़ता है, तो ही कोई बीमारी शरीर पर हावी होती है. एलोपैथिक चिकित्सा में तुरन्त आराम तो मिलता है, परन्तु यह निश्चित नहीं कि रोग जड़ से खत्म हो जायेगा लेकिन आयुर्वेद चिकित्सा रोग के मूल कारण पर केन्द्रित है इसलिए रोग जड़ से समाप्त हो जाता है और उसकी पुन: उत्पति नहीं होती. आयुर्वेद में चिकित्सा करते हुए केवल रोग के लक्षणों को ही नहीं देखा जाता बल्कि इसके साथ साथ रोगी के मन, शारीरिक प्रकृति एंव अन्य दोषों की प्रकृति को भी ध्यान में रखा जाता है. यही कारण है कि एक ही रोग होने पर भी अलग अलग रोगियों की चिकित्सा एंव औषधियों में भिन्नता पाई जाती है. आयुर्वेद के अनुसार कोई भी रोग केवल शारीरिक अथवा केवल मानसिक नहीं हो सकता. शारीरिक रोगों का प्रभाव मन पर पड़ता है एंव मानसिक रोगों का प्रभाव शरीर पर पड़ता है. इसीलिए सभी रोगों को मनो-दैहिक मानते हुए चिकित्सा की जाती है. इसमें किसी भी प्रकार के रासायनिक पदार्थों का प्रयोग नहीं किया जाता इसलिए इन औषधियों का हमारे शरीर पर किसी भी प्रकार का कुप्रभाव नहीं पड़ता. आयुर्वेद में रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने पर बल दिया जाता है ताकि किसी भी प्रकार का रोग न हो. आयुर्वेद एंव योग (Yoga) से असाध्य रोगों का सफल उपचार किया जाता है एंव वे रोग भी ठीक हो सकते है जिनका अन्य चिकित्सा पद्धतियों में कोई उपचार संभव नहीं है.

क्या है इलेक्ट्रो होम्योपैथी

क्या है इलेक्ट्रो होम्योपैथी इलेक्ट्रो होम्योपैथी असल में होम्योपैथी चिकित्सा का ही एक हिस्सा है, जिसमें पेड़-पौधों का औषधीय अर्क निकालकर उसका इस्तेमाल विभिन्न रोगों में आल्टरनेट थेरेपी के तौर पर किया जाता है। इस चिकित्सा पद्धति के अनुसार रोग के लक्षण और औषधि के लक्षण में जितनी अधिक समानता होगी, रोगी के ठीक होने की सम्भावना भी उतनी अधिक बढ़ जाएगी। इस थेरेपी का मुख्य काम रक्त में आई अशुद्धियों को दूर कर शरीर को बीमारियों से मुक्त बनाना है। कैसे काम करती है यह इलेक्ट्रो होम्योपैथी चिकित्सा विज्ञान की वह शाखा है। जिसमें सभी प्रकार की बीमारियों के लिये सिर्फ पेड़-पौधों के अर्क का इस्तेमाल किया जाता है। इस पद्धति द्वारा इलाज के दौरान किसी भी जानवर या अन्य किसी प्रकार के खनिज स्रोत का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। यह पद्धति पूरी तरह प्राकृतिक तरीकों से इलाज करती है। यह पूरी तरह सुरक्षित और बिना किसी साइड इफेक्ट के काम करने वाली थेरेपी है। अवसाद, आर्थराइटिस, माइग्रेन, अल्सर और अन्य अनेक प्रकार की गम्भीर बीमारियों का इलाज इस थेरेपी से सफलतापूर्वक किया जा सकता है। योग्यता इस कोर्स में डिप्लोमा और डिग्री दोनों स्तरों पर दाखिला लिया जा सकता है। डिप्लोमा कोर्स (D.E.H.M.) में दाखिला लेने के लिये दसवीं कक्षा अथवा उसके समकक्ष होना जरूरी है। वहीं डिग्री कोर्स (B.E.M.S.) के लिये 10+2 विज्ञान में फिजिक्स, केमिस्ट्री और बायोलॉजी विषयों के साथ उत्तीर्ण आवश्यक है। विज्ञान विषय में स्नातक भी इस कोर्स के लिये आवेदन कर सकते हैं। लेकिन यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि U.G.C. या MCI जैसे मान्यता प्राप्त संस्थान उपरोक्त कोर्स को मान्यता नहीं देते। हालांकि इसे मान्यता देने पर सरकार अब विचार कर रही है।

वैकल्पिक चिकित्सा

वैकल्पिक चिकित्सा "पूरक चिकित्सा" और "पूरक और वैकल्पिक चिकित्सा" यहां पुनर्निर्देशित होते हैं।' पश्चिमी जगत में उन सभी चिकित्सा पद्धतियों को वैकल्पिक चिकित्सा कहते हैं जो परम्परागत चिकित्सा पद्धति के अन्तरगत नहीं रखी जा सकतीं। [1] या “ऐसी पद्धति जिसे एक समान रूप से कभी प्रभावी नहीं माना जाता.”[2] इसे प्रायः साक्ष्य आधारित चिकित्सा पद्धति के रूप में देखा जाता है और इसमें वैज्ञानिक आधार के स्थान पर ऐतिहासिक या सांस्कृतिक उपचार पद्धतियां शामिल होती हैं। अमेरिका के नैशनल सेंटर फॉर कम्प्लीमेंटरी एंड ऑल्टरनेटिव मेडिसीन (National Center for Complementary and Alternative Medicine) (एनसीसीएएम) (NCCAM) ऐसे उदाहरणों का उल्लेख करता है, जिसमें अन्य पद्धतियों के अतिरिक्त प्राकृतिक चिकित्सा, पाद-चिकित्सा (chiropractic), जड़ी-बूटी चिकित्सा, पारंपरिक चीनी चिकित्सा पद्धति, आयुर्वेद, ध्यान, योग, जैवप्रतिपुष्टि, सम्मोहन, होम्योपैथी, एक्युपंक्चर और पोषण-आधारित उपचार-पद्धतियां शामिल हैं।[3] इसे प्रायः पूरक चिकित्सा पद्धति के समूह में रखा जाता है, जिसका सामान्य अर्थ होता है, मुख्य धारा वाली तकनीकों के संयोजन में प्रयोग किए जाने वाले समान हस्तक्षेप,[4][5][6] जिन्हें पूरक तथा वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति या कैम (CAM) के तहत रखा जाता है। वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के कुछ अनुसंधानकर्ता इस समूहीकरण का विरोध करते हैं और इन विधियों के बीच अंतर स्थापित करना पसंद करते हैं, तथापि वे कैम (CAM) शब्द का प्रयोग करते हैं, जो मानक बन चुका है।[7][8] अनुक्रम कुछ वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियाँ 1. संपूर्ण स्वास्थ्य 2. मन / शारीरिक 3. विजुअलाइजेशन 4. ध्यान 5. आध्यात्मिक इलाज 6. बायोफीडबैक 7. सम्मोहन 8. मानसिक इलाज 9. गुप्त इलाज 10.विद्युत चुम्बकीय चिकित्सा (चुंबक चिकित्सा) 11. रैडिस्थेसिया 12. रैडियोनिक्स 13. सियोनिक चिकित्सा 14. क्रिस्टल / रत्न चिकित्सा 15. पिरामिड इलाज 16. मूत्र चिकित्सा 17. हर्बॉलोजी / औषधीय पादप 18. इवनिंग प्रिमरोज तैल 19. प्राकृतिक चिकित्सा 20. ऑक्सीजन थैरेपी 21. होम्योपैथी 22.पुष्पगंध, बैच फ्लॉवर उपचार 23. एरॉमाथैरेपी 24. लोक चिकित्सा 25. आयुर्वेदिक चिकित्सा 26. मूल अमेरिकी चिकित्सा 27. एशियाई चिकित्सा 28. तिब्बती चिकित्सा 29. दक्षिणपूर्व एशियाई चिकित्सा 30. चीनी चिकित्सा 31. एक्यूपंक्चर 32. ऑस्टियोपेथी 33. कीरोप्रैक्टिक शारीरिक कार्य चिकित्सा 1. अंगमर्दन (खिलाडियों का अंगमर्दन) 2. एक्युप्रेशर् 3. शियात्सु 4. जिन शिन डु 5. रिफ्लेक्सोलॉजी 6. स्पर्श 7. चिकित्सीय स्पर्श 8. रिशियान थैरेपी 9. रैडिक्स 10. बॉयोएनर्जेटिक्स 11. फेल्डेक्राइस 12. पोस्चुरल इन्टिग्रेशन 13. अलेक्जेंडर तकनीक 14. एस्टॉन पैटर्निंग 15. हेलर वर्क 16. ट्रैगर 17. रॉजेन विधि 18 प्रायौगिक कायनिसियॉलोजी 19. स्वास्थ्य के लिए स्पर्श 20. पॉलारिटी थैरेपी 21. लोमी 22. रेकी 23. शेन थैरेपी 24. एरिका 25. ब्रीमा 26. सेन्सरी एवेयरनेस 27. हाइड्रोथैरेपी स्नान 28. सुआना 29. आइरिडोलोजी 30. योग 31. मार्शल आर्ट्स 32. आइकिडो 33. ताई ची चु'आन 34. नृत्य थैरेपी 35. हँसी थैरेपी / हास्य 36. संगीत / ध्वनि थैरेपी 37. काव्य थैरेपी 38. बिबिलियो थैरेपी 39. कला थैरेपी 40. वर्ण थैरेपी 41. पालतू पशु चिकित्सा परिचय वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियां अपने मूल सिद्धांतों में उतनी ही विविध हैं, जितनी अपनी कार्य-विधियों में. ये पद्धतियां पारंपरिक चिकित्सा पद्धति, लोक ज्ञान, आध्यात्मिक विश्वास या उपचार के नए तरीकों पर आधारित होती हैं।[9] जिन न्यायाधिकार क्षेत्रों में वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियां पर्याप्त रूप से प्रचलित हों, वहां उन्हें कानूनी लाइसेंस मिल सकता है तथा उन्हें विनियमित किया जा सकता है। वैकल्पिक चिकित्सा के चिकित्सकों के दावों को सामान्यतः चिकित्सा समुदाय द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता, क्योंकि सुरक्षा तथा प्रभावोत्पादकता का साक्ष्य-आधारित मूल्यांकन या तो उपलब्ध नहीं होता अथवा इन पद्धतियों के लिए यह पूरा ही नहीं किया जाता. यदि वैज्ञानिक अनुसंधान द्वारा किसी वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति की सुरक्षा तथा प्रभावोत्पादकता का प्रमाण दिया जाता है, तो वह मुख्य धारा की चिकित्सा पद्धति बन जाती है और “वैकल्पिक” नहीं रह जाती और इसलिए वह पारंपरिक चिकित्सकों द्वारा व्यापक रूप से अपना ली जाती है।[10][11] चूंकि वैकल्पिक चिकित्सा तकनीकों में साक्ष्य की कमी होती है या वे परीक्षण में बार-बार असफल रहती हैं, इसलिए कुछ लोगों ने इन्हें गैर-साक्ष्य आधारित वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के रूप में या पूरी तरह से एक अचिकित्सीय पद्धति के रूप में परिभाषित करने की सलाह दी है। कुछ अनुसंधानकर्ता मानते हैं कि कैम (CAM) को साक्ष्य-आधारित विधियों के आधार पर परिभाषित करने में समस्या उत्पन्न होगी, क्योंकि कैम (CAM) का परीक्षण किया जा चुका है तथा उनका मानना है कि मुख्यधारा की कई पद्धतियों में भी ठोस प्रमाण की कमी पाई गई है।[12] इसकी व्यापकता को देखने के लिए 13 देशों में किये गये अध्ययनों की, वर्ष 1998 में की गई एक सुव्यवस्थित समीक्षा में यह निष्कर्ष निकाला गया कि कैंसर के लगभग 31% रोगी पूरक तथा वैकल्पिक चिकित्सा के किसी न किसी रूप का प्रयोग करते हैं।[13] वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियां देशों के आधार पर बदलती रहती हैं। एड्जार्ड अर्न्स्ट (Edzard Ernst) कहते हैं कि ऑस्ट्रिया तथा जर्मनी में कैम (CAM) मुख्यतः चिकित्सकों (फिजीशियन) के हाथों में ही है,[8] जबकि कुछ आकलनों का मानना है कि अमेरिका के कम से कम आधे वैकल्पिक चिकित्सिक फिजीशियन हैं।[14] जर्मनी में जड़ी-बूटियों पर कड़ा नियंत्रण है, जिनमें से आधी डॉक्टरों द्वारा दी जाती हैं तथा वहां की कमीशन ई (Commission E) कानून के आधार पर स्वास्थ्य बीमा द्वारा शामिल की गईं हैं।[15] शब्द “वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति” संज्ञा का प्रयोग सामान्यतः स्वतंत्र रूप से प्रयुक्त पद्धतियों के लिए अथवा पारंपरिक चिकित्सा के स्थान पर प्रयुक्त होने वाली पद्धतियों को वर्णित करने के लिए किया जाता है। “पूरक चिकित्सा” शब्दावली का प्रयोग मुख्य रूप से ऐसी पद्धतियों को वर्णित करने के लिए किया जाता है, जो पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों के साथ प्रयुक्त होती हैं या उनकी पूरक होती हैं। एनसीसीएएम (NCCAM) का सुझाव है कि, "गंध-चिकित्सा का प्रयोग, जिसमें रोगियों के स्वास्थ्य में सुधार एवं उसकी सलामती के लिए तथा सर्जरी के बाद उसकी बेचैनी को कम करने हेतु फूलों, बूटियों तथा पेड़ों के आवश्यक तेलों की खुशबू सुंघाई जाती है”[11] पूरक चिकित्सा का उदाहरण है। “समाकलनात्मक” (integrative) या “समाकलित चिकित्सा” (integrated medicine) शब्दावलियां पारंपरिक तथा वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों वाले उपचारों के संयोजन को सूचित करती हैं, जिनकी प्रभावोत्पादकता के लिए कुछ वैज्ञानिक प्रमाण मौजूद हैं; तथा इन पद्धतियों के समर्थकों द्वारा उन्हें पूरक चिकित्सा पद्धति के सर्वोत्तम उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है।[11] राल्फ सिंडरमैन (Ralph Snyderman) तथा एंड्र्यू वेल (Andrew Weil) कहते हैं कि, “समाकलनात्मक चिकित्सा, पूरक तथा वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति की पर्याय नहीं होती. इसका अर्थ तथा उद्देश्य काफी विस्तृत होता है, जिसमें यह चिकित्सा के उद्देश्य को स्वास्थ्य तथा उपचार पर केंद्रित रखती है और रोगी-चिकित्सक के संबंधों की केंद्रीयता पर बल देती है।”[16] रोकथाम तथा जीवन-शैली में परिवर्तन पर जोर डालने वाली परंपरागत तथा पूरक चिकित्सा का संयोजन ही समाकलित चिकित्सा है। वर्णन वैकल्पिक या पूरक चिकित्सा पद्धति के लिए कोई स्पष्ट तथा एक समान परिभाषा नहीं है।[17]:17 पाश्चात्य संस्कृति में इसे प्रायः ऐसी उपचार पद्धति के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो “पारंपरिक चिकित्सा पद्धति के क्षेत्र में नहीं आती”[1] या जिसे “एक समान रूप से प्रभावशाली नहीं देखा गया।”[2] स्व-वर्णन नैशनल सेंटर फॉर कम्प्लीमेंटरी एंड ऑल्टरनेटिव मेडिसिन (National Center for Complementary and Alternative Medicine) (एनसीसीएएम) (NCCAM) कैम (CAM) को “विविधतापूर्ण चिकित्सीय तथा स्वास्थ्य सुरक्षा प्रणालियों, पद्धतियों तथा उत्पादों का एक विविधतापूर्ण समूह, जो मौजूदा पारंपरिक चिकित्सा पद्धति का अंग नहीं है,” के रूप में वर्णित करता है। कोक्रैन कॉम्प्लीमेंटरी मेडिसिन फील्ड (Cochrane Complementary Medicine Field) ने पाया कि जिसे एक देश में पूरक या वैकल्पिक चिकित्सा मानते हैं, उसे ही दूसरे देशों में पारंपरिक चिकित्सा पद्धति माना जा सकता है। इसलिए उनके द्वारा दी गई परिभाषा सामान्य है: “पूरक चिकित्सा में ऐसी सभी पद्धतियां तथा विचार शामिल होते हैं, जो कई देशों में पारंपरिक चिकित्सा क्षेत्र के बाहर होते हैं और उसके प्रयोगकर्ता द्वारा उसे बचावकारी या रोगोपचारी, अथवा स्वास्थ्यवर्धक तथा उपचारात्मक के रूप में परिभाषित किया जाता है।”[18] उदाहरण के लिए जैवप्रतिपुष्टि का उपयोग सामान्यतः भौतिक चिकित्सा तथा पुनर्वास समुदाय द्वारा किया जाता है, लेकिन कुल मिलाकर चिकित्सा-विज्ञान समुदाय में इसे वैकल्पिक चिकित्सा के रूप में माना जाता है, तथा यूरोप में कुछ जड़ी-बूटी वाली चिकित्सा पद्धतियां मुख्य धारा की चिकित्सा पद्धतियां हैं, पर अमेरिका में वे वैकल्पिक मानी जाती हैं।[19] एक समाकलनात्मक चिकित्सा शोधकर्ता डेविड एम आइसनबर्ग (David M. Eisenberg),[20] इसे इस प्रकार परिभाषित करते हैं, “ऐसे चिकित्सीय हस्तक्षेप जो अमेरिकी चिकित्सा संस्थानों में व्यापक रूप में नहीं सिखाए जाते या सामान्यतः अमेरिकी अस्पतालों में नहीं पाए जाते,”[21] एनसीसीएएम (NCCAM) का मानना है कि यदि पहले के अप्रमाणित उपचारों का प्रयोग सुरक्षित तथा प्रभावशाली हो, तो उन्हें पारंपरिक चिकित्सा में शामिल किया जा सकता है।[11] पूरक तथा वैकल्पिक चिकित्सा के शोधकर्ता बैरी आर. कैसिलेथ (Barrie R. Cassileth) ने इस मामले को इस प्रकार संक्षेपित किया है, “जैसा कि कैम (CAM) को मुख्य धारा की चिकित्सा में समाकलित करने या "वैकल्पिक" चिकित्सा के लिए अलग NIH अनुसंधान संस्था बनाने का प्रयास चल रहा है, मुख्यधारा के सभी चिकित्सक कैम (CAM) के साथ सहज नहीं है।”[10][22] वैज्ञानिक समुदाय संस्थान नैशनल साइंस फाउंडेशन (National Science Foundation) ने वैकल्पिक चिकित्सा को “ऐसी सभी चिकित्सा पद्धतियां जिन्हें वैज्ञानिक विधियों द्वारा प्रभावशाली साबित न किया गया हो,” के रूप में परिभाषित किया है।[23] इंस्ट्यिट्यूट ऑफ मेडिसिन (Institute of Medicine)(आईओएम) (IOM) ने वर्ष 2005 में पूरक तथा वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों (कैम)(CAM) को एक विशेष संस्कृति तथा ऐतिहासिक अवधि में गैर-प्रभावी चिकित्सीय विधि के रूप में परिभाषित किया। कोक्रैन कोलैबॉरेशन (Cochrane Collaboration)[18] तथा आधिकारिक सरकारी निकायों, जैसे यूके डिपार्टमेंट ऑफ हेल्थ (UK Department of Health)[24] ने ऐसी ही एक परिभाषा अपनाई है। साक्ष्य-आधारित चिकित्सा पद्धतियों के समर्थक, जैसे कोक्रैन कोलैबॉरेशन (Cochrane Collaboration) वैकल्पिक चिकित्सा जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं, पर वे इस बात से सहमत हैं कि सभी उपचार चाहे वे “मुख्य धारा” के हों या “वैकल्पिक” पद्धति के हों, वैज्ञानिक विधियों के मानकों के अनुसार किये जाने चाहिए। [25] वैज्ञानिक मुख्य धारा के कई वैज्ञानिकों तथा चिकित्सकों ने वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों पर टिप्पणी की है और उनकी आलोचना की है। चिकित्सा अनुसंधानकर्ताओं के बीच एक बहस छिड़ी हुई है कि क्या किसी उपचार पद्धति को सही तरह से ‘वैकल्पिक चिकित्सा’ के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। कुछ शोधकर्ता दावा करते हैं कि चिकित्सा पद्धति केवल वही है, जिसका समुचित रूप से परीक्षण किया गया है, तथा जिसका परीक्षण न हुआ हो वह कोई पद्धति नहीं। [10] उनका मानना है कि स्वास्थ्य की देखभाल की पद्धतियों को प्रमुख रूप से वैज्ञानिक साक्ष्यों पर आधारित माना जाना चाहिए। यदि किसी चिकित्सा पद्धति का कड़ा परीक्षण हुआ हो और वह सुरक्षित तथा प्रभावी पाई गई हो, तो पारंपरिक चिकित्सा पद्धति उसे अपना लेगी, चाहे उसे आरंभ में ‘वैकल्पिक’ ही क्यों न माना गया हो। [10] इस प्रकार किसी विधि के लिए यह संभव है कि इसकी प्रभावशीलता की विस्तृत जानकारी या उसके अभाव के आधार पर वह वर्गों को परिवर्तन (प्रमाणित या अप्रमाणित) कर दे। इस विचार के प्रमुख समर्थकों में जर्नल ऑफ द अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (Journal of the American Medical Association) (जामा) (JAMA) के पूर्व संपादक जॉर्ज डी. लुंडबर्ग (George D. Lundberg) शामिल हैं।[26] स्टीफन बैरेट (Stephen Barrett), क्वैकवॉच (Quackwatch) के संस्थापक तथा संचालक, मानते हैं कि “वैकल्पिक’ पद्धति के नाम वाली चिकित्सा को सही, प्रयोगात्मक या संदेहास्पद के रूप में पुनर्वर्गीकृत किया जाए. यहां ‘सही’ के लिए वे ऐसी विधियों की बात करते हैं, जिनके पास सुरक्षा तथा प्रभावशीलता के स्पष्ट प्रमाण हों, प्रयोगात्मक वे हैं, जो अप्रमाणित होने के बाद भी प्रभावशीलता के लिए सत्याभासी मूलाधार (plausible rational) देती हैं, तथा संदेहास्पद, जो वैज्ञानिक रूप से सत्याभासी मूलाधार के बिना आधारहीन हों. उन्हें इसकी चिंता है कि चूंकि कुछ “वैकल्पिक” चिकित्सा-पद्धतियों के अपने गुण होते हैं, अतः बाकी के लिए यही मान लिया जाता है कि उनमें भी खूबियां होंगी, पर अधिकतर बेकार होती हैं।[27] वे कहते हैं कि एनटीएच (NIH) की नीति है कि कभी यह नहीं कहना चाहिए कि अमुक पद्धति कारगर नहीं है, बल्कि एक अलग संस्करण या ख़ुराक के कुछ अलग परिणाम हो सकते हैं।[28] पूरक चिकित्सा के प्रोफेसर, एड्जार्ड अर्न्स्ट (Edzard Ernst) कई वैकल्पिक तकनीकों के साक्ष्यों को कमजोर, अस्तित्वविहीन या नकारात्मक मानते हैं, पर उनका कहना है कि अन्य के साक्ष्य उपलब्ध हैं, विशेषकर कुछ जड़ी-बूटियों तथा एक्युपंचर के लिए। [29] एक विकासवादी जैववैज्ञानिक रिचर्ड डॉकिन्स वैकल्पिक चिकित्सा को इस प्रकार परिभाषित करते हैं, “पद्धतियों का एक समूह, जिसका परीक्षण न किया जा सके, परीक्षण से इन्कार करे, या परीक्षण में लगातार असफल हो.”[30] वे कहते हैं कि यदि तकनीक को किसी उचित प्रदर्शित परीक्षणों में प्रभावी पाया जाता है, तो वह वैकल्पिक न होकर चिकित्सा बन जाती है।[31] चार नॉबेल पुरस्कार विजेताओं तथा अन्य प्रमुख वैज्ञानिकों के एक पत्र में नैशनल इस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ (National Institutes of Health) में आलोचनात्मक विचार तथा वैज्ञानिक सावधानी की कमी की भर्त्सना की गई, जिससे वैकल्पिक चिकित्सा के अनुसंधान को बढ़ावा मिलता है।[32] वर्ष 2009 वैज्ञानिकों के एक समूह ने नैशनल सेंटर फॉर कॉम्प्लिमेंटरी एंड ऑल्टरनेटिव मेडिसिन (National Center for Complementary and Alternative Medicine) को बंद करने का प्रस्ताव दिया। उनका कहना था कि बहुत सारे अध्ययन शरीरक्रिया विज्ञान तथा रोगों की अपारंपरिक समझ पर आधारित थे और उनके प्रभाव या तो नहीं थे या काफी कम थे। उनका अगला तर्क था कि इस क्षेत्र के अधिक-सत्याभासी हस्तक्षेपों, जैसे आहार, विराम, योग तथा वनस्पति-चिकित्साओं का एनटीएच (NIH) के अन्य भागों में अध्ययन किया जा सकता है, जहां उन्हें पारंपरिक शोध परियोजनाओं के साथ प्रतियोगिता करनी होगी। [33] एनसीसीएएम (NCCAM) द्वारा किए दस वर्षों में लगभग $2.5 बिलियन डॉलर खर्च करने के बाद सभी अध्ययनों में नकारात्मक नतीजे आने पर इन चिंताओं को और बढ़ावा ही मिला। अनुसंधान विधि विशेषज्ञ तथा “स्नेक ऑयल साइंस (Snake Oil Science)” के लेखक आर. बार्कर. बॉसेल (R. Barker Bausell) कहते हैं, “बेकार की चीजों का अनुसंधान करना राजनैतिक रूप से सही मान लिया गया है।”[28] ऐसी भी चिंताएं हैं कि केवल एनआईएच (NIH) के समर्थन को “बगैर वैधता वाली उपचार पद्धति को अनस्थापित वैधता प्रदान करने" के लिये प्रयोग किया जा रहा है।[33] साइंटिफिक रिव्यू ऑफ ऑल्टरनेटिव मेडिसिन (Scientific Review of Alternative Medicine) के संपादक तथा स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर वैलेस सिम्पसन (Wallace Sampson) लिखते हैं कि कैम (CAM) "फिजूल चीजों का प्रसार है," जो इस बात का उदाहरण है कि वैकल्पिक तथा पूरक चिकित्सा को नीमहकीमी, संदिग्धता, अविश्वसनीयता के स्थान पर प्रयोग किया जाने लगा है और उन्होंने चिंता जताई है कि बिना किसी कारण तथा प्रयोग के कारण कैम (CAM) विरोधाभास को पनाह देता है।[34] लोकप्रिय प्रेस द वाशिंगटन पोस्ट (द वॉशिंगटन पोस्ट) उल्लेख करता है कि पारंपरिक रूप से प्रशिक्षित चिकित्सकों की एक बड़ी संख्या समाकलनात्मक चिकित्सा को व्यवहार में लाती है, जिसे “ऐसी पारंपरिक स्वास्थ्य देखभाल के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसमें ऐक्युपंचर, रेकी, तथा जड़ी-बूटी वाली उपचार रणनीतियां शामिल हैं।”[35] ऑस्ट्रेलियाई हास्य कलाकार टिम मिंकिन (Tim Minchin) अपनी नौ मिनट की बीट कविता “स्टॉर्म” में कहते हैं कि वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति वह है, जिसे “या तो कार्य करने के लिए साबित नहीं किया जा सका या कार्य नहीं करने के लिए साबित किया जा सका,” और तब वे परिहास करते हुए कहते हैं, “आप जानते हैं कि जिस ‘वैकल्पिक चिकित्सा’ को कार्य करने के लिए साबित किया गया है, उसे क्या कहते हैं? चिकित्सा”.[36] वर्गीकरण पूरक तथा वैकल्पिक चिकित्सा की शाखाओं के लिए एनसीसीएएम (NCCAM) ने एक सर्वाधिक प्रयोग में लाई जाने वाली प्रणाली का विकास किया है।[11][17] यह पूरक तथा वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों को पांच प्रमुख समूहों में वर्गीकृत करती है, जिनमें से कुछ अतिव्यापित हैं।[11] 1. सपूर्ण चिकित्सा प्रणालियां: एक से अधिक अन्य समूहों में शामिल हैं, जैसे पारंपरिक चीनी चिकित्सा, होम्योपैथी तथा आयुर्वैद. 2. मस्तिष्क-शरीर चिकित्सा: स्वास्थ्य के लिए यह एक संपूर्णता वाली विधि को अपनाती है, जो मस्तिष्क, शरीर तथा आत्मा के बीच के अंतर्संबंधों को उद्घाटित करती है। यह इस सिद्धांत पर कार्य करती है कि मस्तिष्क “शारीरिक क्रियाओं तथा लक्षणों” को प्रभावित करता है। 3. जैववैज्ञानिक आधार की पद्धतियां: इसमें प्रकृति में पाए जाने वाले पदार्थों का उपयोग किया जाता है, जैसे जड़ी-बूटियां, भोजन, विटामिन तथा अन्य प्राकृतिक पदार्थ. 4. प्रहस्तनीय तथा शरीर-आधारित पद्धतियां: ये प्रहस्तन (manipulation) या शरीर की गतियों को प्रदर्शित करती हैं, जैसे कि पाद-चिकित्सा (chiropractic) या ऑस्टियोपैथिक (osteopathic) प्रहस्तन में किया जाता है। 5. ऊर्जा चिकित्सा: एक ऐसा क्षेत्र है, जो कल्पित तथा विविधतापूर्ण ऊर्जा क्षेत्रों पर आधारित है। • जैवक्षेत्र उपचार पद्धतियां उन ऊर्जा क्षेत्रों को प्रभावित करती हैं, जो अनुमानतः शरीर के चारों और होते हैं तथा शरीर को वेधते हैं। ये उपचार पद्धतियां जिन कल्पित ऊर्जा क्षेत्रों पर आधारित होती हैं, उनके अस्तित्व का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिला है। • जैव-विद्युतचुंबकीय-आधारित उपचार पद्धतियों में विविधतापूर्ण विद्युतचुंबकीय क्षेत्रों, जैसे स्पंदित क्षेत्र, प्रत्यावर्ती धारा या एकांतर-धारा क्षेत्र का गैर-पारंपरिक तरीके से प्रयोग किया जाता है।

क्या है पैरामेडिकल

क्या है पैरामेडिकल (What is Paramedical ?) एक विज्ञान जो पूर्व-अस्पताल के आपातकालीन सेवाओं से संबंधित है, उसे पैरामेडिकल साइंस कहा जाता है। और इस क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्ति को एक सहायक चिकित्सक के रूप में संदर्भित किया जाता है। व्हाट इस पैरामेडिकल। इसका जबीव आज हम आपको देगें। जो उम्मीदवार पैरामेडिकल में करियर बनाना चाहते हैं उनको बता दें कि पैरामेडिकल विज्ञान के क्षेत्र में काम के प्रमुख क्षेत्रों में रीढ़ की हड्डी में चोट प्रबंधन, फ्रैक्चर प्रबंधन, प्रसूति, जलने और मूल्यांकन के प्रबंधन, और सामान्य दुर्घटना के दृश्य का मूल्यांकन करते हैं। कुशल परामर्श विशेषज्ञों की बढ़ती मांग ने युवा उम्मीदवारों के लिए कई कैरियर के अवसर खोले हैं। कई पैरामेडिकल संस्थान डिग्री-और डिप्लोमा स्तर पर पैरा-मेडिसिन के क्षेत्र में पाठ्यक्रम प्रदान करते हैं। हम आपको इस आर्टिकल में बताएंगे कुछ कि आप पैरामेडिकल कैसे कर सकते हैं, या पैरामेडिकल करने के लिए क्या योग्यता होनी चाहिए। तथा इससे जुडी सारी जानकारी आपको यहां से मिलेगी। कुछ लोकप्रिय पैरामेडिकल पाठ्यक्रम नीचे दिए गए हैं। भारत में कई पैरामेडिकल संस्थान इस क्षेत्र में स्नातक, स्नातकोत्तर और डिप्लोमा स्तर पर पाठ्यक्रम पेश कर रहे हैं। पैरामेडिकल में करियर भारत में कई पैरामेडिकल कॉलेज हैं, जो स्नातक डिग्री के क्षेत्र में और स्नातक डिग्री और डिप्लोमा स्तर पर पाठ्यक्रम प्रदान करते हैं। पात्रता के बारे में बात करते हुए, किसी को मान्यता प्राप्त बोर्ड / विश्वविद्यालय से विज्ञान धारा के साथ 10 + 2 का स्तर पारित करना होगा। 12 वीं के बाद पैरामेडिकल पाठ्यक्रमों की सूची पैरा मेडिकल पाठ्यक्रम 10 वीं, 12 वीं के बाद पूरा हो सकते हैं। पैरामेडिकल धारा में 10 वीं कक्षा के बाद विभिन्न पाठ्यक्रम हैं। ये पाठ्यक्रम लंबाई में भिन्न होते हैं, जैसे कि एक वर्ष के पाठ्यक्रम और छह महीने के पाठ्यक्रम। लोकप्रिय एक साल के पाठ्यक्रमों में से कुछ में रेडियोलॉजिस्ट, मेडिकल रिकॉर्ड तकनीशियन और ऑपरेशन थिएटर टेक्नोलॉजी शामिल हैं। आईसीयू तकनीशियन, ईसीजी तकनीशियन, फार्मेसी सहायक, सीटी तकनीशियन और एन्डोस्कोपी तकनीशियन, अपने 12 वीं कक्षा को पूरा करने के बाद कुछ छह महीने के पाठ्यक्रम कर सकते हैं।

यूनानी चिकित्सा

यूनानी चिकित्सा आधुनिक युग में भी प्राचीन यूनानी चिकित्सा पद्धति का महत्व बरकरार है। यह विश्व की सबसे पुरानी उपचार पद्धतियों में से एक है, जिसकी शुरुआत ग्रीस (यूनान) से हुई। इसीलिए इसे यूनानी पद्धति कहा जाता है। इस पद्धति के जनक ग्रीस के महान फिलॉसफर व फिजीशियन हिपोक्रेट्स थे। यूनानी पद्धति मुख्यत ह्यूमरल थ्योरी- दम (ब्लड), बलगम, सफरा और सौदा पर बेस्ड है। भारत में यूनानी पद्धति अरब से आई और जल्द ही भारत में रच-बस गई। इसे भारत में लोकप्रिय बनाने का श्रेय हकीम अजमल खान को जाता है। कई असाध्य रोगों का यूनानी में इलाज संभव है। मुख्य रूप से गठिया, सफेद दाग, एग्जिमा, आस्थमा, माइग्रेन, मलेरिया एंव फाइलेरिया। यूनानी चिकित्सा पद्धति में औषधियां जड़ी-बूटियों और खनिज पदार्थो से बनती हैं। बीमारियों की जांच नब्ज टटोलकर की जाती है। योग्यता यूनानी डॉक्टर बनने के लिए 12वीं के बाद छात्र बीयूएमएस यानी बैचलर आफ यूनानी मेडिसिन ऐंड सर्जरी में एडमिशन ले सकते हैं। साढ़े पांच साल के इस कोर्स में वही छात्र दाखिला पा सकते हैं, जिनका अनिवार्य विषय के रुप में जीव विज्ञान और उर्दू रहा है। बीयूएमएस के बाद छात्र एमडी और एमएस भी कर सकते हैं। लेकिन एमएस यानी मास्टर ऑफ सर्जन की पढ़ाई वर्तमान में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में ही है। अवसर बतौर शिक्षक भारत के प्रमुख शिक्षण संस्थानों में नियुक्त हो सकते हैं। हेल्थ सर्विसेज, राज्य सरकार के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों, हॉस्पिटल्स, नेशनल रूरल हेल्थ मिशन में बतौर मेडिकल ऑफिसर के तौर पर काम कर सकते हैं। बीयूएमस पासआउट को एमबीबीएस के समान दर्जा हासिल है। इसलिए खुद की प्रैक्टिस भी कर सकते हैं। ऑल इंडिया यूनानी तिब्बी कांग्रेस (जो यूनानी डॉक्टरों का एक बड़ा आर्गेनाइजेशन है) छात्रों को बीयूएमएस की डिग्री हासिल होते ही रोजगार मुहैया कराने के लिए अग्रसर रहता है। इस कारण प्लेसमेंट संतोषजनक है। इसमें सरकार का पूरा-पूरा सहयोग है। एडमिशन इसमें दाखिले के लिए छात्रों को प्री यूनिवर्सिटी टेस्ट (पीयूटी) से गुजरना पडता है, लेकिन उत्तर प्रदेश के यूनानी कॉलेजों में कंबाइंड प्री मेडिकल टेस्ट (सीपीएमटी) परीक्षा पास करने के बाद ही दाखिला मिल पाता है। बारहवीं में अच्छे अंक प्राप्त छात्र ही इस परीक्षा में बैठ सकते हैं। साढ़े पांच साल के इस कोर्स में एक साल इंटर्नशिप कराया जाता है।

प्राकृतिक चिकित्सा

प्राकृतिक चिकित्सा प्राकृतिक चिकित्सा (नेचुरोपैथी / naturopathy) एक वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धति एवं दर्शन है जिसमें 'प्राकृतिक', 'स्व-चिकित्सा' (self-healing), 'अनाक्रामक' (non-invasive) आदि कहीं जाने वाली छद्मवैज्ञानिक क्रियाकलापों का उपयोग होता है। प्राकृतिक चिकित्सा का दर्शन और विधियाँ प्राणतत्त्ववाद (vitalism ) और लोक चिकित्सा पर आधारित हैं न कि प्रमाण-आधारित चिकित्सा (EBM) पर। [1] इसके अन्तर्गत रोगों का उपचार व स्वास्थ्य-लाभ का आधार है - 'रोगाणुओं से लड़ने की शरीर की स्वाभाविक शक्ति'। प्राकृतिक चिकित्सा के अन्तर्गत अनेक पद्धतियां हैं जैसे - जल चिकित्सा, होमियोपैथी, सूर्य चिकित्सा, एक्यूपंक्चर, एक्यूप्रेशर, मृदा चिकित्सा आदि। प्राकृतिक चिकित्सा के प्रचलन में विश्व की कई चिकित्सा पद्धतियों का योगदान है; जैसे भारत का आयुर्वेद तथा यूरोप का 'नेचर क्योर'। प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली चिकित्सा की एक रचनात्मक विधि है, जिसका लक्ष्य प्रकृति में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध तत्त्वों के उचित इस्तेमाल द्वारा रोग का मूल कारण समाप्त करना है। यह न केवल एक चिकित्सा पद्धति है बल्कि मानव शरीर में उपस्थित आंतरिक महत्त्वपूर्ण शक्तियों या प्राकृतिक तत्त्वों के अनुरूप एक जीवन-शैली है। यह जीवन कला तथा विज्ञान में एक संपूर्ण क्रांति है। इस प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में प्राकृतिक भोजन, विशेषकर ताजे फल तथा कच्ची व हलकी पकी सब्जियाँ विभिन्न बीमारियों के इलाज में निर्णायक भूमिका निभाती हैं। प्राकृतिक चिकित्सा निर्धन व्यक्तियों एवं गरीब देशों के लिये विशेष रूप से वरदान है। इतिहास प्राकृतिक चिकित्सा की जड़ें १९वीं शताब्दी में यूरोप में चले 'प्राकृतिक चिकित्सा आन्दोलनों' में निहित हैं।[2][3] स्कॉटलैण्ड के थॉमस एलिन्सन १८८० के दशक में 'हाइजेनिक मेडिसिन' का प्रचार कर रहे थे। वे प्राकृतिक आहार, व्यायाम पर जोर देते थे तथा तम्बाकू का सेवन न करने एव्वं अतिकार्य से बचने की सलाह देते थे। [4] 'नेचुरोपैथी' शब्द का पहला प्रयोग १८९५ में जॉन स्कील ने किया था।[5] उसी शब्द को बेनेडिक्ट लस्ट ने आगे बढ़ा दिया था जिस कारण अमेरिका के प्राकृतिक चिकित्सक बेनेडिक्ट को यूएस में नेचुरोपैथी का जनक मानते हैं। [6] प्राकृतिक चिकित्सा के मूलभूत सिद्धान्त प्राकृतिक चिकित्सा के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-[7] 1. सभी रोग, उनके कारण एवं उनकी चिकित्सा एक है। चोट-चपेट और वातावरणजन्य परिस्थितियों को छोड़कर सभी रोगों का मूलकारण एक ही है और इनका इलाज भी एक है। शरीर में विजातीय पदार्थो के संग्रह से रोग उत्पन्न होते है और शरीर से उनका निष्कासन ही चिकित्सा है। 2. रोग का मुख्य कारण जीवाणु नही है। जीवाणु शरीर में जीवनी शक्ति के ह्रास आदि के कारण विजातीय पदार्थो के जमाव के पशचात् तब आक्रमण कर पाते है जब शरीर में उनके रहने और पनपने लायक अनुकूल वातावरण तैयार हो जाता है। अतः मूल कारण विजातीय पदार्थ है, जीवाणु नहीं। जीवाणु द्वितीय कारण है। 3. तीव्र रोग चूंकि शरीर के स्व-उपचारात्मक प्रयास है अतः ये हमारे शत्रु नही मित्र है। जीर्ण रोग तीव्र रोगों के गलत उपचार और दमन कें फलस्वरूप पैदा होते है। 4. प्रकृति स्वयं सबसे बडी चिकित्सक है। शरीर में स्वयं को रोगों से बचाने व अस्वस्थ हो जाने पर पुनः स्वास्थ्य प्राप्त करने की क्षमता विद्यमान है। 5. प्राकृतिक चिकित्सा में चिकित्सा रोग की नहीं बल्कि रोगी की होती है। 6. प्राकृतिक चिकित्सा में रोग निदान सरलता से संभव है। किसी आडम्बर की आवश्यकता नहीं पड़ती। उपचार से पूर्व रोगों के निदान के लिए लम्बा इन्तजार भी नहीं करना पड़ता। 7. जीर्ण रोग से ग्रस्त रोगियों का भी प्राकृतिक चिकित्सा में सफलतापूर्वक तथा अपेक्षाकृत कम अवधि में इलाज होता है। 8. प्राकृतिक चिकित्सा से दबे रोग भी उभर कर ठीक हो जाते है। 9. प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा शारिरिक, मानसिक, सामाजिक (नैतिक) एवं आध्यात्मिक चारों पक्षों की चिकित्सा एक साथ की जाती है। 10. विशिष्ट अवस्थाओं का इलाज करने के स्थान पर प्राकृतिक चिकित्सा पूरे शरीर की चिकित्सा एक साथ करती है। 11. प्राकृतिक चिकित्सा में औषधियों का प्रयोग नहीं होता। प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार 'आहार ही औषधि' है। 12. गांधी जी के अनुसार 'राम नाम' सबसे बडी प्राकृतिक चिकित्सा है अर्थात् अपनी आस्था के अनुसार प्रार्थना करना चिकित्सा का एक आवश्यक अंग है। व्यवहार में प्राकृतिक चिकित्सा प्राकृतिक चिकित्सा न केवल उपचार की पद्धति है, अपितु यह एक जीवन पद्धति है। इसे बहुधा 'औषधिविहीन उपचार पद्धति' कहा जाता है। यह मुख्य रूप से प्रकृति के सामान्य नियमों के पालन पर आधारित है। जहाँ तक मौलिक सिद्धांतो का प्रश्‍न है, इस पद्धति का आयुर्वेद से निकटतम सम्बन्ध है। प्राकृतिक चिकित्सा के समर्थक खान-पान एवं रहन-सहन की आदतों, शुद्धि कर्म, जल चिकित्सा, ठण्डी पट्टी, मिटटी की पट्टी, विविध प्रकार के स्नान, मालिश्‍ा तथा अनेक नई प्रकार की चिकित्सा विधाओं पर विशेष बल देते है। प्राकृतिक चिकित्सक पोषण चिकित्सा, भौतिक चिकित्सा, वानस्पतिक चिकित्सा, आयुर्वेद आदि पौर्वात्य चिकित्सा, होमियोपैथी, छोटी-मोटी शल्यक्रिया, मनोचिकित्सा आदि को प्राथमिकता देते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा के व्यवहार में आने वाले कुछ कर्म नीचे वर्णित हैं- मिट्टी चिकित्सा प्राकृतिक चिकित्सा में माटी का प्रयोग कई रोगों के निवारण में प्राचीन काल से ही होता आया है। नई वैज्ञानिक शोध में यह प्रमाणित हो चुका है कि माटी चिकित्सा की शरीर को तरो ताजा करने जीवंत और उर्जावान बनाने में महती उपयोगिता है। चर्म विकृति और घावों को ठीक करने में मिट्टी चिकित्सा अपना महत्व साबित कर चुकी है। माना जाता रहा है कि शरीर माटी का पुतला है और माटी के प्रयोग से ही शरीर की बीमारियां दूर की जा सकती हैं। शरीर को शीतलता प्रदान करने के लिए मिट्टी-चिकित्सा का उपयोग किया जाता है। मिट्टी, शरीर के दूषित पदार्थों को घोलकर व अवशोषित कर अंततः शरीर के बाहर निकाल देती है। मिट्टी की पट्टी एवं मिट्टी-स्नान इसके मुख्य उपचार हैं। मृदास्नान (मड बाथ) रोगों से मुक्ति का अच्छा उपाय है। मिट्टी के लाभ विभिन्न रोगों जैसे कब्ज, स्नायु-दुर्बलता, तनावजन्य सिरदर्द, उच्च रक्तचाप, मोटापा तथा विशेष रूप से सभी प्रकार के चर्म रोगों आदि में सफलतापूर्वक इसका उपयोग कर जीवन शक्ति का संचार एवं शरीर को कांतिमय बनाया जा सकता है। रोग चाहे शरीर के भीतर हो या बाहर, मिट्टी उसके विष और गर्मी को धीरे-धीरे चूसकर उस जड़-मूल से नष्ट करके ही दम लेगी। यह मिट्टी की खासियत है। मिट्टी कैसी हो? मिट्टी-स्नान के लिए जिस क्षेत्र में जैसी मिट्टी उपलब्ध हो, वही उपयुक्त है लेकिन प्रयोग में लाई जाने वाली मिट्टी साफ-सुथरी, कंकर-पत्थर व रासायनिक खादरहित तथा जमीन से 2-3 फुट नीचे की होना चाहिए। एक बार उपयोग में लाई गई मिट्टी को दुबारा उपयोग में न लें। अगर मिट्टी बहुत ज्यादा चिपकने वाली हो तो उसमें थोड़ी-सी बालू रेत मिला लें। संक्रमण से ग्रस्त तथा अत्यधिक कमजोर व्यक्ति मिट्टी-स्नान न करें। ठंडे पानी से स्नान करने के पश्चात शरीर पर हल्का तेल मल लें। सूखी मिट्टी स्नान शुद्ध-साफ मिट्टी को कपड़े से छान लीजिए और उससे अंग-प्रत्यंग को रगड़िए। जब पूरा शरीर मिट्टी से रगड़ा जा चुका हो, तब 15-20 मिनट तक धूप में बैठ जाएं, तत्पश्चात ठंडे पानी से, नेपकीन से घर्षण करते हुए स्नान कर लीजिए। गीली मिट्टी स्नान शुद्ध, साफ कपड़े से छनी हुई मिट्टी को रातभर पानी से गलाकर लेई (पेस्ट) जैसा बना लीजिए और पूरे शरीर पर लगाकर रगड़िए तथा धूप में 20-30 मिनट के लिए बैठ जाएं। जब मिट्टी पूरी तरह से सूख जाए तब ठंडे पानी से पूरे शरीर का नेपकीन से घर्षण करते हुए स्नान कर लें। मिट्टी की पट्टी का प्रयोग उदर विकार, विबंध, मधुमेह, सिर दर्द, उच्च रक्त चाप ज्वर, चर्मविकार आदि रोगों में किया जाता है। पीड़ित अंगों के अनुसार अलग अलग मिट्टी की पट्टी बनायी जाती है। वस्ति (एनिमा) वस्ति (enima) वह क्रिया है, जिसमें गुदामार्ग, मूत्रमार्ग, अपत्यमार्ग, व्रण मुख आदि से औषधि युक्त विभिन्न द्रव पदार्थों को शरीर में प्रवेश कराया जाता है। उपचार के पूर्व इसका प्रयोग किया जाता जिससे कोष्ट शुद्धि हो। रोगानुसार शुद्ध जल, नीबू जल, तक्त, निम्ब क्वाथ का प्रयोग किया जाता है। जल चिकित्सा मनुष्य−शरीर तीन चौथाई भाग से अधिक जल से ही बना है। हमारे रक्त , माँस, मज्जा में जो आद्रता या नमी का अंश है वह पानी के कारण ही है। मल, मूत्र, पसीना और तरह−तरह के रस, सब पानी के ही रूपान्तर होते हैं। यदि शरीर में पानी की कमी हो जाती है तो तरह−तरह के रोग उठ खड़े होते हैं पानी की कमी से ही गर्मी में अनेक लोग लू लगकर मर जाते हैं। जुकाम में पानी की भाप लेने से बहुत लाभ होता है। इसी प्रकार सिर दर्द और गठिया के दर्द में भी इस उपचार से निरोगता प्राप्त होती है, शरीर में जब फोड़े फुँसी अधिक निकलने लगते हैं और मल्हम आदि से कोई लाभ नहीं होता तो जलोपचार उनको चमत्कारी ढंग से ठीक कर देता है। पेट−दर्द होने पर प्राकृतिक चिकित्सक ही नहीं एलोपैथिक डाक्टर भी रबड़ की थैली या बोतल में गर्म पानी भर कर सेक करवाते हैं। कब्ज के रोग में गर्म पानी पीना बड़ा लाभकारी होता है और जो नित्य प्रति सुबह गर्म पानी नियम से पीते रहते हैं उनका कब्ज धीरे-धीरे अवश्य ठीक हो जाता है। मनुष्य−शरीर तीन चौथाई भाग से अधिक जल से ही बना है। हमारे रक्त , माँस, मज्जा में जो आद्रता या नमी का अंश है वह पानी के कारण ही है। मल, मूत्र, पसीना और तरह−तरह के रस, सब पानी के ही रूपान्तर होते हैं। यदि शरीर में पानी की कमी हो जाती है तो तरह−तरह के रोग उठ खड़े होते हैं पानी की कमी से ही गर्मी में अनेक लोग लू लगकर मर जाते हैं। जुकाम में पानी की भाप लेने से बहुत लाभ होता है। इसी प्रकार सिर दर्द और गठिया के दर्द में भी इस उपचार से निरोगता प्राप्त होती है, शरीर में जब फोड़े फुँसी अधिक निकलने लगते हैं और मल्हम आदि से कोई लाभ नहीं होता तो जलोपचार उनको चमत्कारी ढंग से ठीक कर देता है। पेट−दर्द होने पर प्राकृतिक चिकित्सक ही नहीं एलोपैथिक डाक्टर भी रबड़ की थैली या बोतल में गर्म पानी भर कर सेक करवाते हैं। कब्ज के रोग में गर्म पानी पीना बड़ा लाभकारी होता है और जो नित्य प्रति सुबह गर्म पानी नियम से पीते रहते हैं उनका कब्ज धीरे-धीरे अवश्य ठीक हो जाता है। रोगों और शारीरिक पीड़ा के निवारण के लिये गर्म पानी का प्रयोग तो साधारण गृहस्थों के यहाँ भी सदा से होता आया है, पर ठंडे पानी के लाभों को थोड़े ही लोग समझते हैं, यद्यपि ठंडा पानी गर्म पानी की अपेक्षा अधिक रोग निवारक सिद्ध हुआ है। ज्वर, चर्म, रोग में ठंडे पानी से भीगी हुई चादर को पूरी तरह लपेटे रहने से आश्चर्यजनक लाभ पहुँचता है। उन्माद तथा सन्निपात के रोगियों के सिर पर खूब ठण्डे जल में भीगा हुआ कपड़ा लपेट देने से शान्ति मिलती है। शरीर के किसी भी भाग में चोट लगकर खून बह रहा हो बर्फ के जल में भीगा हुआ कपड़ा लगाने से खून बहना रुक जाता है। नाक से खून का बहना भी पानी से सिर को धोने तथा मिट्टी के सूँघने, लपेटने से ठीक होता है। इसी प्रकार अन्य अंगों के विकार भी जल के प्रयोग से सहज में दूर हो जाते हैं। जर्मनी के डाक्टर लुई कूने ने अपने ग्रंथ में बहुत स्पष्ट रूप से यह समझा दिया है कि जल−चिकित्सा ही सर्वोत्तम है। उसमें किसी प्रकार का खर्च नहीं है और सादा जल का प्रयोग करने से शरीर में कोई नया विकार भी उत्पन्न होना संभव नहीं है। स्नान की वैज्ञानिक विधि स्नान के लिये बहता हुआ साफ पानी सबसे अच्छा होता है। वह न मिल सके तो कुँआ, तालाब आदि का ताजा पानी भी काम दे सकता है। बहते हुये और ताजा पानी में जो प्राण तत्व पाया जाता है वह बर्तनों में कई घंटों तक रखे पानी में नहीं रहता। इसलिये अगर रखे हुये पानी से ही काम लेना पड़े तो उसे एक बर्तन से दूसरे बर्तन में बार−बार कुछ ऊँचाई से डालने से उसमें प्राण−शक्ति का संचार हो जाता है। स्नान का पानी सदैव ठण्डा ही होना चाहिये, हाँ उसका तापक्रम ऋतु के अनुसार इतना रखा जा सकता है जिसे अपना शरीर सहज में सहन कर सके। अपनी शक्ति से अधिक ठण्डे पानी, से स्नान करना जिससे मन प्रसन्न होने के बजाय संकुचित हो, लाभदायक नहीं होता। इसी प्रकार गर्म पानी से स्नान करना भी हानिकारक है, सिवाय किसी विशेष बीमारी की अवस्था के जिसमें इस प्रकार के स्नान का विधान हो। पानी अधिक ठण्डा जान पड़े तो उसे धूप में रख कर या गर्म पानी मिला कर सहने योग्य बनाया जा सकता है। बहुत ठण्डे पानी में अधिक देर तक स्नान करने से रक्त −संचारण क्रिया में बाधा पड़ती है। स्नान करते समय शरीर को खूब मलना आवश्यक है जिससे मैल छूट कर देह के भीतर की गर्मी को उत्तेजना मिले और रक्त−संचरण ठीक ढंग से होने लगे। इसके लिये शरीर को किसी मोटे और खुरदरे तौलिये से रगड़ना ठीक रहता है। इससे शरीर के रोम कूप भली प्रकार खुल जाते हैं और भीतर का मैल पसीने के रूप में आसानी से निकल सकता है। पीठ, रीढ़ की हड्डी, चूतड़, लिंगेन्द्रिय, आदि की सफाई करने का बहुत से लोग ध्यान नहीं रखते। पर इन स्थानों की सफाई की और भी अधिक आवश्यकता होती है। इसलिये आधुनिक सिद्धान्तानुसार एकान्त कमरे में नंगे होकर स्नान करने को अधिक लाभदायक बतलाया गया है। कुछ भी हो स्नान में जल्दबाजी न करके समस्त अंगों को भली प्रकार रगड़ना और साफ करना आवश्यक है। स्नान के लाभ गर्म जल से स्नान भी अगर विधिपूर्वक किया जाय तो विशेष लाभदायक हो सकता है। गर्म जल से शरीर के रोमकूप विकसित होकर फैलते हैं, उनसे मलयुक्त पसीना सहज में निकलने लगता है और भीतर का रक्त ऊपर की तरफ दौड़ने लगता है। इससे शरीर की गर्मी बाहर निकलने लगती है और यही कारण है कि गर्म पानी से स्नान करने के थोड़ी देर बाद अधिक ठण्ड का अनुभव होने लगता है। इसलिये गर्म जल से स्नान करने के बाद तुरन्त ही ठण्डे जल से स्नान करना अनिवार्य है, ताकि ऊपर को दौड़ने वाला रक्त फिर भीतर वापस चला जाय और उसकी गर्मी अधिक मात्रा में बाहर न निकल जाय। इसके लिये फुहारा स्नान (शावर बाथ) सबसे अच्छा रहता है। यदि शावर की व्यवस्थान हो तो उसकी तरह जल छिड़क कर और छींटे मार कर स्नान किया जा सकता है। उचित रीति से स्नान करने से शारीरिक स्वास्थ्य की वृद्धि होती है और रोगों के आक्रमण का भय बहुत कम हो जाता है। अनेक साधारण रोग तो नियमित स्नान करने से अपने आप मिट जाते हैं। फुहारे के नीचे बैठ कर स्नान करना अधिक सुविधाजनक और शीतल करने वाला होता है। नदी या तालाब में तैर कर स्नान करने से व्यायाम का भी लाभ मिल जाता है और शारीरिक अंग प्रत्यंगों का विकास होता है। वर्षा में मेह के जल से स्नान करने से फुहारा स्नान का−सा आनन्द मिलता है और जल में जो अत्यधिक प्राण−शक्ति होती है उससे बहुत लाभ भी उठाया जा सकता है। पर ऐसा स्नान अपने स्वास्थ्य और शक्ति के अनुसार थोड़े समय तक ही करना चाहिये। कमजोर या अधिक वृद्ध लोगों के लिये मेह में अधिक देर तक भीगना ठीक नहीं होता। बीमारों के लिये नित्य स्नान करना आवश्यक है, पर वह बहुत सम्भल कर होना चाहिये। पानी का तापमान ऐसा हो जिससे शरीर पर किसी तरह का खराब असर न पड़े। यदि स्नान की सुविधा न हो तो कपड़े या तौलिया को मामूली पानी में भिगोकर उससे समस्त शरीर को भली प्रकार रगड़ कर पोंछ देना भी काफी लाभदायक होता है। इससे शरीर की गन्दगी दूर हो जाती है और तबियत में ताजगी तथा प्रसन्नता का भाव आ जाता है। स्नान का एक खास उद्देश्य शरीर को ठण्डा करना भी होता है क्योंकि शरीर के अन्दर जो विजातीय द्रव्य एकत्रित हो जाता है वह गर्मी उत्पन्न करता है। यह विजातीय द्रव्य अधिकाँश में नीचे के भाग में ही एकत्रित होता है इसलिए वैज्ञानिक विधि के अनुसार पहले नीचे के भागों को ही धोना और ठण्डा करना चाहिये। इसके लिए किसी ऐसी टब या नाँद में बैठाकर स्नान किया जाय जिसमें तीन चार इंच पानी भरा हो। इसमें बैठकर पेडू पर खूब छपके मारें और उसे हथेली से रगड़ कर जल को सुखाएं। इसके बाद लोटा−लोटा पानी ऊपर डालकर स्नान करें। यदि नदी तालाब आदि पर स्नान करना हो तो वहाँ डुबकी लेकर स्नान करें। स्नान के पश्चात् बदन को तौलिये से पोंछने के बजाय हथेलियों से पोंछकर ही सुखा दें तो ज्यादा लाभदायक होता है और आनन्द भी मिलता है। इस तरह के प्राकृतिक स्नान से अनेक प्रकार के शारीरिक लाभ प्राप्त होते हैं और रोगों का भय जाता रहता है। स्त्रियों के लिये ऐसा स्नान उनकी अनेक जननेन्द्रिय सम्बन्धी बीमारियों को दूर करने वाला सिद्ध हुआ है। पुरुषों के भी प्रमेह, स्वप्नदोष, कब्ज, अजीर्ण जैसे रोगों में इसमें धीरे−धीरे बड़ी कमी हो जाती है। इस प्रकार प्राकृतिक स्नान प्रत्येक व्यक्ति के लिए हितकारी है। यों तो इसके सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा जा सकता है, पर सबका साराँश यही है हमारे शरीर में जमा होने वाला विजातीय द्रव्य नीचे के भाग में ज्यादा असर करता है। उसकी हानिकारक गर्मी को शान्त करने के लिए इस प्रकार का स्नान बड़ा लाभकारी सिद्ध होता है। इस चिकित्सा प्रणाली के आचार्य एडाल्फ जुस्ट ने बतलाया है कि जंगली पशुओं के स्वस्थ रहने का एक कारण यह भी है कि वे अपने पेडू और जननेन्द्रिय वाले हिस्से को कीचड़ और पानी में रखकर ठण्डा कर लेते हैं। रोग−निवारण के लिए विशेष स्नान इस सामान्य स्नान के अतिरिक्त बीमारों और कमजोर स्वास्थ्य वाले व्यक्तियों के लिए प्राकृतिक चिकित्सा के कई अन्य स्नान भी बड़े महत्वपूर्ण हैं, जिनसे शीघ्र प्रभाव पड़ता है और बड़े−बड़े रोग थोड़े ही समय में ठीक हो जाते हैं। उनका संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जाता है। कटि स्नान या हिपबाथ इस स्नान के लिये एक विशेष बनावट की टब बाजार में बिकती है जिसका पिछला भाग कुर्सी की तरह सहारा लेने के लिये उठा रहता है। इसमें रोगी को बिल्कुल नंगा होकर बैठना पड़ता है। दोनों पैर बाहर निकले रहते हैं और सूखे रहते हैं। टब में इतना पानी भरा जाता है कि नाभि के जरा नीचे तक आ जाय। इस प्रकार बैठकर पेडू, जाँघ और जननेन्द्रिय के आस−पास के स्थानों को हथेली से या कपड़े से मलना चाहिये। आरम्भ में पाँच से दस मिनट तक स्नान करना काफी होता है बाद में इस समय को आधा घंटे तक बढ़ाया जा सकता है। पानी इतना ठंडा होना चाहिए जितना आसानी से सहन कर लिया जाय। यदि रोगी कमजोर हो और मौसम ठण्ड का हो तो उसे ऊपर से कम्बल आदि से ढक सकते हैं। मेहन स्नान या सिजबाथ इसमें केवल जननेन्द्रिय के सबसे आगे के चर्म को ही धोया जाता है। टब के किनारे एक लकड़ी की चौकी पर बैठ जाएँ और इतना पानी भर लें कि वह जननेन्द्रिय के पास तक पहुँच जाय। फिर किसी नर्म कपड़े को पानी में बार−बार भिगोकर चमड़े के अग्रभाग को सामने की तरफ खींच कर धोएं और इस बात का ध्यान रखें कि भीतर के मूत्र निकलने के मार्ग को बिल्कुल न रगड़ा जाय। स्त्रियाँ भी अपनी जननेन्द्रियों के बाहरी हिस्से को इसी प्रकार धो सकती हैं। मेरु दण्ड स्नान इसके लिये नल के नीचे बैठकर रीढ़ की हड्डी के ऊपर पानी की धार गिराना चाहिए। अथवा तौलिया को पानी में भिगो कर उससे रीढ़ की हड्डी को रगड़ना चाहिए। इन स्नानों के बाद भीगे शरीर को अच्छी तरह पोंछकर देह में गर्मी लाने के लिये थोड़े समय तक टहलना चाहिए, या हल्का व्यायाम करना चाहिए अथवा ऋतु के अनुकूल हो तो थोड़ी देर तक धूप में रहना चाहिये। स्नान के दो घण्टे पहले और एक घण्टे बाद तक खाना मना है। गीली चादर लपेटना ज्वर की अवस्था में अथवा समस्त शरीर में विजातीय द्रव्य के अधिकता होने पर गीली चादर का प्रयोग बहुत लाभदायक होता है। पहले एक कम्बल को नीचे बिछाकर उस पर एक भीगा और निचोड़ा हुआ साफ चादर फैला दिया जाता है। उस पर रोगी को लिटाकर उसे पूरी तरह उसमें लपेट दिया जाता है, जिससे किसी तरफ होकर बाहरी हवा का आवागमन न हो सके। गर्दन से ऊपर सिर को खुला रखा जाता है। उसके पश्चात् कम्बल को भी ऊपर से उसी प्रकार लपेट दिया जाता है। इस प्रकार पन्द्रह बीस मिनट तक पड़े रहने से पसीना आ जाता है और देह की अतिरिक्त गर्मी निकलकर स्वस्थता का अनुभव होने लगता है। गीले कपड़े की पट्टी जब पूरे शरीर के बजाय किसी खास अंग की ही चिकित्सा करने की आवश्यकता होती है तो कपड़े के एक टुकड़े की कई तह करके ठण्डे पानी से भिगोकर उस स्थान पर रख दिया जाता है। जब पट्टी गरम हो जाय तो उसको हटाकर फिर से ठण्डा करके रखा जा सकता है। ठण्डे पानी की प्रतिक्रिया इन सब विधियों से जो लाभ होता है उसका मूल कारण ठण्डे पानी की प्रतिक्रिया ही होती है। जिस प्रकार नंगे बदन पर ठंडे पानी के छींटे मारने से फुरफुरी सी आती है और रोंये खड़े हो जाते हैं और उसी के फल से बाद में रक्त संचार की गति तेज हो जाती है। इसी प्रकार उक्त स्नानों और पट्टियों के प्रयोग में जहाँ शीतल पानी का स्पर्श होता है वहाँ पहले तो गर्मी की कमी हो जाती है, पर बाद में उस कमी की पूर्ति के लिए भीतर का रक्त वहाँ खिंच आता है। इस प्रकार जब रक्त की गति तेज होती है तो उसके साथ दूषित विजातीय द्रव्य भी बहकर मलाशय की तरफ ढकेले जाते हैं। इस प्रकार जल के प्रभाव से रोगों का निवारण होता है और सुस्त तथा निर्बल अंगों को नवीन चेतना प्राप्त होती है। अधिकाँश रोगों की जड़ पेट सम्बन्धी खराबी अथवा कब्ज ही होती है। उसका दूषित विकार नीचे के हिस्से में ही रहता है। कटिस्नान द्वारा इसी भाग को चैतन्य किया जाता है। इससे पुराने और सड़े मल के निकलने में सहायता मिलती है। कठिन अवस्था में कटिस्नान और एनीमा दोनों का एक साथ प्रयोग किया जाता है जिससे शरीर की शुद्धि शीघ्रतापूर्वक होती है। पुरुष और स्त्रियों के प्रजनन अंगों का अग्रभाग समस्त स्नायविक नाड़ी−जालवा केन्द्र माना गया है। उसे शीतलता पहुँचाकर वहाँ की हानिकारक गर्मी को निकाल देने से समस्त शरीर को नव−जीवन और स्फूर्ति की प्राप्ति होती है। रीढ़ के बीच होकर ही ज्ञान तंतुओं का मुख्य संस्थान है, इसलिए रीढ़ को जलधारा द्वारा अथवा कपड़े की पट्टी द्वारा ठण्डक पहुँचाने से मस्तिष्क की निर्बलता दूर होती है। गीली चादर लपेटने का असर समस्त देह पर पड़ता है और ज्वर, चेचक, रक्त , जिगर, दमा, क्षय, शोथ, खुजली जैसे शरीरव्यापी रोगों पर उसका बहुत हितकारी प्रभाव पड़ता है। भाप−स्नान जिस प्रकार ठण्डे और गर्म पानी के प्रयोग से अनेक रोग दूर होते हैं उसी प्रकार भाप के प्रयोग से भी अनेक प्रकार की शारीरिक पीड़ाओं से छुटकारा मिलता है। अगर समस्त शरीर का कोई रोग हो तो उसके लिए किसी लोहे की जाली के पलंग या छिरछिरी बुनी हुई चारपाई पर रोगी को लिटाकर उसके नीचे खौलते हुए पानी के तीन बर्तन रख देने चाहिये और सबके ऊपर से एक बड़ा कम्बल इस प्रकार डाल देना चाहिये कि वह पूर्ण चारपाई को ढ़ककर जमीन को छूता रहे जिससे भाप बाहर न निकल सके। ऐसा करने से थोड़ी देर में खूब पसीना निकलने लगता है जिसके साथ शरीर के बहुत से विकार भी निकल जाते हैं और शरीरव्यापी समस्त दोषों की शुद्धि हो जाती है। अगर किसी खास अंग पर ही भाप देनी हो तो उसी अंग को भाप निकलते हुए बर्तन के ऊपर रखना चाहिये और ऊपर से किसी कपड़े से इस प्रकार ढक देना चाहिये कि वह अंग तथा बर्तन दोनों उससे ढक जाएँ। यदि ऐसा न हो सके तो खूब गरम पानी में ऊनी कपड़े के दो टुकड़े डाल देने चाहिएं। जिस अंग पर सेंक करना हो उस पर एक मोटा सूती कपड़ा डाल लेना चाहिये। तब पहले एक ऊनी कपड़े को निकाल कर निचोड़ कर दर्द के स्थान पर रख दें। जब वह ठण्डा होने लगे तो उसे हटाकर दूसरे टुकड़े को उसी प्रकार रख दे। सूती कपड़ा डालने का उद्देश्य यह होता है कि सेंक होते समय उस अंग को ठण्डी हवा का झोंका न लगे और दूसरे यदि ऊनी कपड़ा ज्यादा गर्म हो जाय तो उसका असर एकदम त्वचा पर न पड़े। इन विधियों से या जैसी परिस्थिति हो उसके अनुकूल इनमें कुछ परिवर्तन करके पीड़ित अंगों को भाप से सेंकने से बहुत शीघ्र लाभ होता है। गर्म स्नान या भाप के उपचार के बाद ठण्डे पानी से नहाने या धोने का भी नियम है जिससे रक्त संचरण की गति ठीक हो जाय। सूर्य रश्मि चिकित्सा सूर्य के प्रकाश के सात रंगो के द्वारा चिकित्सा की जाती है। यह चिकित्‍सा शरीर में उष्‍णता बढ़ाता है। स्‍नायुओं को उत्‍तेजित करना वात रोग, कफ, ज्‍वर, श्‍वास, कास, आमवात पक्षाघात, ह्रदयरोग, उदरमूल, मेढोरोग, वात जन्‍यरोग, शोध चर्मविकार, पित्‍तजन्‍य रोगों में प्रभावी हैं।

होमियोपैथी क्या है ?

होमियोपथों के खोजकर्ता डॉ सेम्युल हेहनीमेन मुलतः एक एलोपेथ थे, जो अपनी चिकित्सा प्रणाली से असंतुष्ट थे । पुराने शास्त्रों का अध्ययन करते समय उन्होंने होमियोपैथी के विषय पाये, जिनके प्रयोग से उन्हें अच्छे परिणाम मिले और उन्होंने इस चिकित्सा प्रणाली का विकास किया । होमिओपैथो एक पूर्ण चिकित्सा पद्धती है जो सुरक्षित, सरल व असरकारक है । यह व्यक्ति के प्राकृतिक स्वस्थ की पूर्ति करने में सहायता करता है - जिन बिमारियों से वह त्रस्त हो रहा है । शरीर की बिमारियों से लड़ने की अपनी ही रोग-प्रतिकारक शक्ति होती है , जिसे होमियोपैथो चिकित्सा बढाती है । यह चिकित्सा पद्धती सभी को लाभान्वित क्र सकती है । होमियोपैथो कुछ ही बिमारियों के लिए पर्याप्त नहीं है बल्कि विश्व की सारी बिमारियों में उपयुक्त है । एलर्जिक बिमारियों में अनेक प्रकार की त्वचा की बिमारियों जैसे कि अट्रीकेरिया (शीतपित्त), एक्जीमा, आदि में यह अत्यंत असरकारक है । साथ-ही-साथ शारीरिक-मानसिक असंतुलन जैसे कि माइग्रेन,अस्थमा, एसिडिटी, पेप्टिक अल्सर, एलर्जी, अल्सरेटिव कोलाइटिस, एलर्जिक ब्रोंकईटिस, किडनी व पिशाब संबंधी रोग, नस-नाड़ियों के रोग, श्वास के व पेट सबंधी तकलीफों, आदि का सफलता से उपचार होता है । शरीर में उत्पन्न बिमारियों के कारण का मानसिकता से कैसा संबंध है यह होमियोपैथो अच्छे से पहचानती है । हर प्रकरण में मरीज की मानसिक व शारीरिक स्थिति की जाँच करके ही उसके अनुकूल दवाई दी जाती है , जिससे बीमारी समूल नष्ट हो जाती है । होमियोपैथो केवल लाक्षणिक बीमारी का उपचार न करके पुरे व्यक्ति का उपचार करती है । होमियोपैथो दवाईयां मानसिक बा भावनात्मक असंतुलित स्थिति का भी उपचार करती है ।